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• ५४] , जैनसिद्धतिसंग्रह।
छानहिं अंतुलबल परम प्रिय हिंत, मधुर वचन मुंहावने । दश सहन अतिशय सुभग मूरति, वाललील कहावने ।। भाबाल काल त्रिलोकपति मन, रुचिंत उचितं जु नित नये। अमरोपनीत पुनीत अनुपम, सकल मोंग विभोगये ॥११॥
भवतन-भोग-विरत, कदाचित चित्तए। . धनं योवन पिय पुत्त, कलत्त अनित्त ए॥ .. . कोई न शरन मरनदिन, दुख चढंगति भर्यो। .
सुखं दुख एकहि भोगत; जियं विधिवश पर्यो . : पर्यो विधि वश आन चेतन, आन जड़ जु कलेवरो। . तन मशुचिपरतें होय आस्लव, परिहरी सो संवरो । निर्जरा तपबल होयं समकित,-विन सदा त्रिभुवन अन्यो। दुर्लभ विवेक विना न कबहूं, परम धरमविपै रम्यो ॥ ११ ॥
ये प्रभु बारह पावन, मावन भाया। लोकांतिक वर देव, नियोगी आइया॥ कुसुमांजलि दे चरन, कमल शिरनाइया ।
स्वयंबुद्ध प्रभु थुति करि, तिन समुझाइया ॥ . . समुझाय प्रभु ते गये निजपद, फुनि महोच्छन हरि कियो। रुचिरुचिर चित्र विचित्र शिविका, कर सुनंदन बन लियो । वह पंचमुष्टि लोच कीनों, प्रथम सिद्धहि नुति करी। मंडित महाव्रत पंच दुर्द्धर, सकल परिग्रह परिहरि ॥१३॥
मणिमयमानन केश परिहिय सुरमती। . चीर-समुद्र-जल खिपिकरि, गयो अमरावती ॥