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जैनसिद्धांतसंग्रह। . [५६ वर अष्ट मंगल कनक कलशनि, सिंहपीठ सुहावनी ।। ८॥
रचि माणिमंडप शोमित मध्य सिंहासनो। .. . थाप्यो पूरव-मुख तहा, प्रभु कमलासनो ।। . . बानहिं ताल मृदंग, वेणु वीणा घने ।
दुंदुभि प्रमुख मधुर, धुनि, और जु वामने:॥ बानने बानहिं सची सब मिलि, धवल मंगल गावहीं ॥ कर करहिं नृत्य सुरांगना सब, देव कौतुक धावहीं॥ भरि छीरसागर-जल जु हाहिं, हाथ सुर गिरि ल्यावहीं । सौधर्म अरु ऐशानइंद्र सु, कलश ले प्रभु न्हावहीं ॥१॥
वदन-उदरं-अवगाह, कलशगत जानिये। . एक चार वसु योजन, मान प्रमानिये ॥ सहस-अठोवर कलशा, प्रभुके सिर ढरै।
फुनि शृंगारप्रमुख आ,-चार सबै करै ।। करि प्रगट प्रमु महिमामहोच्छव, आनि फुनि मातहिं दयो। धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गयो । जनमाभिषेक महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं। जन 'रूपचंद्र' सुदेव निनवर, जगत मंगल गावहीं ॥१०॥
... श्री तप कल्याणक । श्रमजलरहित शरीर, सदा सब मलरहिउ । छोर-वरन वर रुधिर, प्रथमाकृति लहिउ ।। प्रथम सारसंहनन, सुरूप विरानहीं। सेहज-सुगंध सुलच्छन,-मंड़ित छानहीं ॥.