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NARMA
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४२] नैनसिद्धांतसंग्रह। मैं अम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये विधिफळ पुण्यपाप । निनको परको करता पिछान, परमें अनिष्टता इष्ट ठान | आकुलित भयो अज्ञानधारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि ॥ तनपरणतिमें आपो चितारि, कचहूं न अनुभवो स्वपदसार ॥९॥ तुमको विन जाने नो कलेश, पाये सो तुम जानत मिनेश । पशु नारक नर सुर गतिमझार, भव घर घर मरचा अनंतबार ।।१०॥ अब काललाधवल दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । मन शांत भयो मिट सकलद्वंद, बायोस्वात्मरस दुखनिकंद॥११॥ तातें अब ऐसा करहु नाथ विठुरै न कभी तुव चरणमाय ! तुम गुणगणको नहिं छेव देव, जगतारनको तुव विरद एव ॥१॥ मातमके अहित विषय कषाय. इनम मेरी परिणत न जाय ।। मैं रहूं आपमें आप लीन, सो करो होहु ज्यों निनाधीन ॥१॥ मेरे न चाह कुछ और ईश, रत्नत्रयनिधि दीन मुनीश ॥ मुझ कारजके कारन सु आप, शिव करहु हरहुमम मोहताप ॥१॥ शशि शांतिकरन नपहरनहेत, स्वयमेव क्या तुम कुशल देव ॥ पीवत पियूय ज्यों रोग जाय, त्या तुम अनुमवत भव नसाय ॥१५॥ त्रिभुवन तिहुकालमँझार काय, नहिं तुम विन निजसुखदाय होय ॥ मो उर यह निश्चय भयो आज, दुखजलधि उतारन तुम निहान ॥ ६॥ दाहा-तुमगुणगणमाण गणपतो, गणत न पाहि पार । • 'दौल' स्वल्पमति किम कहे, नमू त्रियोग समार ॥
अथ बुधजनकृत स्तुति। प्रभु पतिपावन में अपावन, चरन आयो शरनजी।