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________________ ४४८ ] जैन सिद्धांतसंग्रह | दोहा - वैयावृत्य स्वाध्यायकर, कायोत्सर्ग सु मान । ध्यान करें निम रूपको, ये बारह तप मान ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं द्वादशविचितपोयुक्ताय आचार्य परमेष्ठिने अर्थ नि० ॥ लक्ष्मीधरा छंद । प्रतिक्रमण ये करें सो कायोत्सर्ग ये ठाने । समताभाव समेत, बंदना नित मन माने ॥ स्तुति करें बनाय गाय, स्वाध्याय सुनीको । • षटू आवश्यक क्रिया, पापमळ घोय यतीको ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं षडावश्यगुणविभूषिताचार्य परमेष्ठिने अर्ध नि० ॥ ज्ञानाचार सुधार, दर्शनाचार सु घारें । घर चारित्राचार, उपाचाहिं विस्तारें ॥ वीर्याचार विचार पंच आचार ये धारी । मन वच तन कर, बार बार वंदना हमारी ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं पंचाचार गुणविभूषिताया चार्य परमेष्ठिने अर्ध नि० ॥ दोहा - श्री गुप्त पार्के पदा, मन अरु वचन सु काय 1 सो व द्रव्य सँजोयके, पूमों मन हुलशाय ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं त्रिगुप्तिगुणविभूषितायाचार्यपरमेष्ठिने अर्ध नि० ॥ सोरठा - दश विधि धर्म सुजान, द्वन्दश तप षटू क्रिया घर । पंचाचार प्रमाण, तीन गुप्ति छत्तीस गुण ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य परमेष्ठिने पूर्णार्थं निर्वपामः ति स्वाहा ॥ श्रीउपाध्याय गुण पूंजा । दोहा - उपाध्याय गुण -चाणऊँ, पंच अरु बीस प्रमान | एकादश वर अग अरु, चौदह पूरव जान ॥ १ ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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