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४४६] जैनसिन्दांतसंग्रह।
चरण कमळ तक रचत कमक सुर, चले जात मिनराई। मेषकुमारोंकृत गंधोदक, वरसे पति सुखदाई ॥१०॥ चड प्रकार सुर नय नय करते, सब जीवन मन भावे । धर्मचक्र चक भागे प्रमुके, देखत भानु लनावे ॥ वसु विधि मंगलद्रव्य धरी, वहाँ देखत मनको मोहे ।
विपुल पुण्यका उदय भयो है, सब विभूतियुत सोहे ॥११॥ दोहा-ये चौदह देवन सु कत, भतिशय कहे वखान ।
इन युत श्रीभरहंतपद, पूनों पद सुख मान ॥ १२ ॥
ॐ ही सुरकृतचतुर्दशातिशयसंयुक्ताय श्रीनिनाय मध नि०॥ लक्ष्मीधरा-पातिहार्य बसु मान, वृक्ष सोहे अशोक नहीं।
पुष्पवृष्टि दिव्यध्वनि, सुर ढोरें सु चमर तहां ॥ छत्र तीन सिंहासन, भामण्डल छवि छाने । बनत दुदुमी शब्द श्रवण, सुख हो दुख भाजे ॥१६॥
ॐ ही मष्टविधिप्राविहार्यसंयुक्ताय श्रीजिनाय अर्घ नि.॥ चौपाई-ज्ञानावणी करम निवारा, ज्ञान मनन्त तवै जिन धारा। नाश दर्शनावरणी सुरा । दरशन भयो अनन्त सु पूरा ॥ १४ ॥ दोहा-मोह फर्मको नाशकर, पायो सुक्ख अनन्त । .
अन्तरायको नाशकर, बल अनन्तं प्रगटन्त ॥ १५ ॥
ॐ ह्रीं-मनन्तचतुष्टयविराजमानश्रीजिनाय अब नि० ॥ पाईता छंद-मतिशय चौतीस बखाने वसु पातहान शुभ जाने। पुन चार चतुष्टय लेवा । इन छयालिस गुण युत देवा ॥ १६॥ .
ॐ हीं षट्चत्वारिंशदगुणसहिताय श्रीनिनाय अर्घ नि.॥