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जन सिद्धातसंग्रह ।
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दोहा - तन मल रहित मतुल्य बळ, भारत हैं मिनराज ॥ ये दश अतिशय जनमके, भाषे श्रीगणराज ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं सहनदशातिशयप्राप्ताय श्रीजिनाय वर्ध नि० ॥ पडरी छंद ।
केवल उपजे अतिशय सुजान । सो सुनो भव्य जन चित्त मान ॥ शत योजन चारों दिशा माहिं । दुर्भिक्ष तहां दीखे सो नाहिं ॥४॥ माकाशगमन करते जिनेश । प्राणीका घात न होय लेश ॥ कवला महार नाहीं करात । उपसर्ग विना दीखे सो गात ॥ १ ॥ चतुरानन चारों दिशा जान । सब विद्याके ईश्वर महान || छाया उनकी नाहीं सो होय । टिमकार पर्कक लागे न कोय ॥१॥ नख केश वृद्धि ना होंय जास। ये दश मतिशय केवळ प्रकाश ॥ तिनको हम बन्दें शीसनाय । भव भवके अघ छिनमें पलाय ||७||
ॐ ह्रीं केवलज्ञान जन्मदशा तिशय सुशोभिताय श्रीजिनाय अर्ध ॥ चौबोला- जब देवनकृत चौदह अतिशय, सो सुन लीने भाई । सकल परथमय मागधि भाषा, सब जीवन सुखदाई ॥ मैत्रीभाव सकल नीवनके, होत महां सुखकारी । 'निर्मल दिशा उसें सब ओरी, उपजे आनंद भारी ॥८॥
अरु निर्मल आकाश विराजत, नीळवरन तन घारी ।
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षट्ऋतुके फल फूल मनोहर, लगे दुमकी डारी ॥
दर्पण सम सो धरनि तहाँकी, अति जिय आनंद पावे । निष्कंटक मेदनि विराने, क्यों कवि उपमा गावे ॥९॥ मन्द सुगन्ध वयारि वृष्टि, गन्धोदककी चहुँपाई । हरषमई सत्र सृष्टि विराजे, आनंद मंगलदाई ॥