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जैन सिद्धांतसंग्रह |
८ ॥
ॐ ह्रीं श्रमेष्टम्यो धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥] फलसम्म सुख दातार, तन मन धोय नळसे लीजिये । घर थल मध्य सु भक्ति, जिनगन चाण जर्ज निये ॥ये ० ॥ ॐ ह्रीं पंचमेष्ठभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ले नीर निर्मल गन्ध अक्षत सुमन अरु नैवेद्य जी । मिक दीप धू' सु फळ भले, घर भाघ परम उम्मेदनी ॥ | ये ० ॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेम्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ रोड़क छंद - विधि अरब संजोय जोय जे पंच दृष्ट वर । पूजों मन हुन्साय, पांय जिन प्रीति हृदय घर || तुम सम अन्य न ज्ञान, नानि तुम्हरे गुण गाऊ । घर थात्रीक मध्य सो, पूरण भरघ बनाऊं ॥
ॐ ह्रीं श्रीपचपरमेष्ठिम्यो पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥१०॥ श्री अरहंत गुण पूजा ।
सोरठा छयालिस गुण समुदाय, दोष अठारह तारते । मरिहत शिवसुखदाय, मुझ तारो पूजों सदा ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अस्परमेष्ठिने पट्चत्वारिंशद्गुणविभूषिताय अष्टादशदोषरहिताय श्रीजिनाय अर्ध निवणमीति स्वाहा ||
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छंद मोतियदाम |
जिनके नहि खेद न स्वेद कहा | तन श्रोणित दुग्ध समान महा ॥ प्रथमा संस्थान विराजत है । वर वज्र शरीर सु रामत हैं ॥ १ ॥ छवि देखत भानु प्रताप नसे। उनसे सु सुगन्ध महा निकसे ॥ शव लक्षण अष्ट विराजत हैं । प्रिय चैन सबै हित छाजत हैं ॥२॥