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४३०] जैनसिद्धांतसंग्रह।
नरकघराके परसतें, सरस वेदना सोय ॥३॥ वहां परम पर वान भति, हाहा करते एम ।
ऊंचे उछलें नारकी, उपे तवा तिल जैन ॥ ४॥ . सोरठा-नरक सातवें माहि, उछलत योजन पांचसे ।
__ और मिनागम माहि, यथायोग सब मानिये ।।५।। दोहा-फेर भान भूपर परे, और कहाँ उडि नाहिं।
छिन्नमिन्न तन मति दुखित, लोट कोट विकलाहि ॥ ६ ॥ सब दिश देख अपूर्व थल, चक्रित चित भगवान । मन सोचे मैं कौन ई. परो कहां मैं मान ॥ ७॥ कौन भयानक भूमि यह, सब दुख थानक निन्द । रुद्र रूपये कौन है, नितुर नारकी बन्द ॥४॥ काले वरण कराक मुख, गुंगालोचन धार। हुंडक डीक डरावने, करें मार ही मार ॥९॥ मुमन न कोई दिठिपरे, शरण न सेवक कोष । । ऐसो कछु मुझे नहीं, नासो छिन मुख होय ॥ १० ॥ होत विमंगा भवधि तब, निन परको दुखकार । नरक कूपमें भापको, परोनान निरधार ॥ ११ ॥ पुरव-पाप कलाप सब, भाप नाप कर लेयं । . तब विलापकी ताप तब, पश्चाताप करेय ॥ १२ ॥ मैं मानुष पर्याय परि, धन यौवन मदलीन। . अषम कान ऐसे किये, नरकवास मिन कीन ॥ १३ ॥ सरसों सम मुख हेतु, तब भयो लंपटी मान । वाहीको भब फल लगो, यह दुख मेरु समान ॥ १॥