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जैनसिद्धांतसंग्रह ।.: [४३१ कंदमूल:मदमांस मधु, और अभक्ष्य अनेक | . मक्षनवश मक्षन किये, भटक न मानी एक ॥ १५॥ जल थल नम निलचर विविष, विलवासी बहु जीव । मैं पापी अपराध विन, मारो दीन मतीव ॥१६॥ नगर दाह कीनो निठुर, गांव नलाये जान । . मठवीमें दींनी भगिन, हिंसाकर सुख. मान ॥ १७ ॥ * अपनी इन्द्री लोभको, बोकी मृषा मलीन । कलपित अन्य बनायके, वहकाये बहु दीन ॥ १८ ॥ दाव घात परपंच सों, पर लक्ष्मी हरि लीन। .. छलवक हठरल द्रव्यबक, पर वनिता वश कीन ॥ १९॥ बड़त परिग्रह पोट सिर, घटो न घनकी चाह । ज्यों ईधनके योगसे, भगिन करे अति दाह ॥ १० ॥ विन छानो पानी पियो, निशि भुनी भविचार । देवद्रव्य खायो सही, रुद्र ध्यान उरधार ॥.९१ ।।.. कीनी सेव कुदेवकी, कुगुरुनिको गुरु मान । सिनहीके उपदेश सों, पशु हो मोहित मान ||२१॥ दियो.न उत्तम दान मैं, जियो न संयम भारः। पियो मूढ मिथ्यात मद, कियो न तप नग सार ॥ १३ ॥ नो घरनी ननदयाकरि, दीनी सखी निहोर। . .. मैं तिनसों रिस करि भषम, भाषे वचन कठोर ॥२४॥ करी कमाई पर जनम, सो भाई मुझ तीर। .. . हा हा भर कैसे धरों नरक घरामे धोर. ॥ २५ ॥ दुर्लभ नरमव पायके कोई पुरुष प्रधान।. : .