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१६४] जैनसिद्धांतसंग्रह। मित बतलाय । पाप क्षमा करवायके, वैर न राखे भाय ॥ ३ ॥ मौन लहै तब धीर सो, अन्तरके हग खोक । तजे राग रुष मोह सब, कर परणाम मडोल ॥ ८४॥ जपली शिथिल न होई वन, इंद्रिय वल मन दौर | तबलौ अनुभव कीनिये, प्रभु मातम गुण और ॥ ८५ ॥ शिथिल पड़ी जब जानिये, इंद्रिय तन मन द्वार | तव नवकार उचारिये, महामंत्र जग सार ॥८६॥ सवैया ॥२३॥ ज्ञानविना नर नारि पशु है योग मिले बड़ भाग सम्हारे । प्राण तजे नवकार उचारत तो गति नीच तनी नहिं पारे। अंजनचोर करी मृगरान अजामुत भादि जपे नवकारे । स्वर्ग तनो सुख वेग लयो शुभ वीनसे वृक्ष यथा शुभलारे ॥८७॥ दोहा ॥ मरण समय औषधि निपुण, दुःख नाशक मुखमूल | बार वार मंत्राहि अपे, उजे जगति दुःख शुल॥८८॥ मैटे वांछा सकल पुन, परेन बन्ध निदान । रत्नछोड़ कांच न है, त्यों समाधि फल भान ॥ ८९ ॥ सवैया २३ । नीव प्रदेश खिंच उनसे दुःखसे नहीं भ'कुल ताप उपेंगे। जीति परीपह हो सुखरूप निरंतर सो नवकार जपेंगे। भासन को शुचि होइ निया शुम ध्यान घर वह कर्म छिपेगे । कंठ लगे कफ ान नवे शुम भूलसे वे दश प्राण चपेंगे ॥ ९ ॥ दोहा । या विधि अधिक सम्हालसे, तजे देह सुख भौन । शुमगति सन्मुख होह कर, जीप करें गति गौन ॥ ११ ॥ छप्पयछंद । नो समाधि मादरे तासु वांक्षा मन चावे । कर उदार परमाण ताहि निशिदिन ही ध्यावे ॥ कब आवे वह घड़ी समाधि सु मरण करोंगो । अंत सल्लेखण माड़ कर्मरिपुसे जु कहोंगो ॥ यह चाह रहे निशिदिन नवे, कुगति बन्ध नाही