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जनसिद्धांतसंग्रह।
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सुमानो । हो विषया रस मत्त तहां पति भातुर भोग न चाह दहानो । देख विभव पर झूर डसो जम माल लखी चयते विललानो भारतिसे मर कर्म ठगो मिय फेर भवार्णवमें भरमानो ॥७॥ यों जु भ्रमो चिरकाल निया बिन सम्यक सुक्ख समान न पायो । जन्म जरा मरणादिक रोग कलेश नो कहुं अंत न भायो। माप स्वरूप विसार रचे पर दुःख चितारत फाटत कायो । तो अब यो दुःख,नाहि छू लख सम्यककी दृढ़ चेतनरायो ॥७६॥ दोहा ।। इम चिंतन कर वेदना, सर्व निवारे सुर । फिर निर्भय नरसिंहवत कहा करै हितपूर ॥७॥ छप्पयछंद । शकि वचनकी रहे जैनश्रुत मुखसे गावे । या बिन बचन न कई नेम धर ममत नशावे ॥ निकट गायु कख पहर चार हे इक दिनकेरी। चउ विषि तन माहार परिग्रह है विधिटेरी पुन शक्ति देख तन जीव बहु जुदी जुदी शक्तिः धरें । इम नेम नाव जिय त्यागहित, न साधनमें मत परे ॥७८॥ अंत सल्लेखना मांड़ आराधन चउ विधि ध्यावे । क्षण २ करे सम्हाल भाव कहूं डिगन न पावे । कर हद तत्व प्रतीति धार सम्यक निरखेदे । वेदन तीक्ष्ण निपट ताहि मन्तर नहीं वेदे ।। नव बचन बंद होता लखे, तब सुबचनसे यों कहव । तुम जिनवानीः पढ़ियो जु बहु, मसत काल यह देह अब ॥७९॥ दोहा । परमेष्टी पांचीनको, रूप सु उर में धार । नमस्कार हित युत करे, फिर फिर कर शिरधार ॥... ॥ जनधर्भ जिन विव भरु, निन वाणी मिनधाम । शुद्ध मावसे देव नव, तिनको करे प्रणाम ॥ ८१ ॥ कन्यारत्यम जिन भवन, सिद्ध क्षेत्र भवतार । तितको बंदो भावसे, युगल पान शिरधार ॥ ८२ ॥ उत्तम क्षमा समस्तसे, कर हित.