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जैनसिद्धांतसंग्रह। तज जो कहुं राशि व्यवहारमें मायो । भाग्य उदय प्रसकाय धरी विनय रू खेद व्हायो । वा पंचेन्द्रिय होई पशु समलान हतो निवचा हत खायो । मूल तृषा हिमनाप त अतिभार बहो हद बन्धन पायो ॥ १९ ॥ देह वनी अति संघट भावनसे तब सुभ्रतनी गति पायो । मृमितहा दुखरूर इसी मनुकोटिन विच्छु. नने डम खायो । देह वहां रुमिरोगन पूरित कंटक सेननसेतु घिसायो । घातकरे दल सेंमलके निन र मनो अमुगन मिड़ायो ॥ ७० ॥ मेरु प्रमाण गले वहां लोह हिमा तप याविधिको मुनि गायो। नान मखें सब लोक तनो न मिटे गद एक कणा न नहायो। सागर नीर पिये न बुझे तृषा जल बूंद न दृष्टि लखायो । को वरणे थिति सागरकी कहुं भाग्य उदय नरकी गति मायो । बास कियो नव मास मधोनुख मात जने दुःखसे जु पनेरो । बालपने गददन्त पलादिक ज्ञान विना न मने बचनेरो। यौवन भामिन संग रचे जु षाय जली गृह भार बड़ेरो। पुत्र उछाह सु हर्ष बढ़ी मु वियोग माल ताप तपेरो ॥ ७२ ॥ द्रव्य उपाभन र सहे अब यों करनो यह तो हम कीनो । संतत जोग न तो दुःख मोग कुपुत्र कुनार तने दुःख भीनो। पीड़ित रोग दरिद्र फंसे अति माकुलसे कर बंध नवीनो । भारति ठान भली सिल मान सो मूद कमी सन्संग न कीनो ॥७३॥ वृद्ध भयो तृष्णाजु वहो मुख कार बहै उन हालत सारो । वस्त्र सम्हाल नहीं तनकी वृषकी हु कथा तहां कौन उचारो। काल मचानक ठ दवे तब खाय विना वृष यों तन प्यारो । चेतन कूच कियो तनसे मुटुम्बके इन्धनसे वपू भरो॥ निरा कीन मकाम कमी नहि स्वर्ग तनी गति मुख