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जैनसिद्धांतसंग्रह। [ ३६१ यह जीव भ्रम भवयोग चलाचलसे उपमेंगे । दुःख लहों चिरकाल धनोरचि जो बुधिवन्त तिन्हें सु तमंगे ! पुण्य रु पाप दुहू तनके निज मातमकी अनुभूति सजेगे। भावत कर्मनको वरजें तब सस भाव सुधी तु भनेंगे । ॥६॥ कर्म झड़े निनकालहि पायन कार्य सरे तिनसे जिय केरो । जो तपसे विधि हानि करें कर निरासे शिवमाहि बसेरो । जो पद्व्य मई यह लोक अनादिको है न करो किहि केरो। एक निया भ्रम तो चिरको दुःख भोगत नाहि तजे भव फेरो ॥६॥ अंतिम ग्रीवक हद्द लहो पद सम्यकज्ञान नहीं कहुं पायो । मातमबोध कहो न कभी अति दुर्लभ जो नगमें मुनि गायो । मोहसे भाव जुदे लखके दृगज्ञान व्रतादिक भाव बतायो। धर्म वही कहिए परमारथ या विधि द्वादश भावना मायो ॥६५॥ दारुण वेदना आयुके अंतमें देहरुरूप अनित्य विचारो। दुःख रु सुक्ख तो कर्मनकी गति देह बधो विधिके संग सारो । निश्चयसे ममरूप हगादिक देह रु कर्मनसे नित न्यारो। तो मुझे दुःख कहा वपुके संग पुरव कर्म विपाक चितारो ॥६॥ देहनशी बहुवार को मन इसी विधि अन्त मुकष्ट लहायो । पैन लखो निज आतमरूप नहीं पहुं जन्म समाधिहि पायो । या भवमें सब योग बनो निन कार्य सुधारनको मुनि गायो। कर्म भरी हरि मोक्षत्रिया वर पुग्ण सुश्ख लहो सु सवायो ॥६॥ काल अनादि में जिय एकहि पंच परावर्तन कर फेरी । द्रव्य रु क्षेत्र सुकाक तथा भवभाव कथा तिनकी बहुतेरी | वार अनंत किये तहां पूरण अन्त लहो भवका न कदेरी । को वरने दुःखकी जु कथा गुण राज थके बुधि अल्पजू मेरी ॥६॥ नित्य निगोद मुभौन मिया