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जैनसिद्धांतसंग्रह। । ३६५ करे । सम्यक्त्ववान नग पूज्य हो, निश्चयसे शिवत्रिय रे ॥९ पंचमकाल करालमें न संयम जो गाई । पर, समाधि आदरे तास महिमा अधिकाई | ताफल पुर गति कह इन्द्र चक्रो नर राई । हो सब जग भोग विदेहां जन्म लहाई । सुखभोगधार तपकर्महर, शिव सुन्दरि परणे मुजन । मुख एक थकी वरणों मुकिम, धन्य समाधि महिमा सुमन ॥ ९ ॥ दोहा । देह अशुचि शुचिको यहां कुछ न विचार करेह । पढ़े पाठ मंत्रहि जपे, अशुचि सदा यह देह ॥१४॥ श्री कास्यप क्रम यमलको, नम विक्रम आन | द्वादायग दोषा सुधर, मूर्द्धन क्षनद विहान ॥ ९५ ॥ नरक कला भ्रत तास रुच, रस्मिन उदय रहंत । शतक समाधि सु विस्तरो।
तव लग जय जयवन्तः ॥.९६ ॥ सवैया २३ 4. मंगळसे-बहु ... विघ्न-नयें यह पाठ:सुपूरण मंगल, क्रीने | है निमित्त वड वीर-दई.
शिख श्रावक प्रेर उदासिय भीने । राखन कंठ सुहेत रचे सब जीव पढ़े सुसमाधिहि चीन्हे | तास प्रमाण श्लोकनका युगसे जु पचास कहै जु नवीने ॥ ९७ ॥ नाम समाधि शतक यथा इकसे इक छन्द ऋवित्त सु कीने । कर्ता मूल जिनेश गणी क्रमसे सो राम गुमानीकीने । ता अनुसार सो प्राण पुरामह छंद रचे लघु धी बदलीने । लक्ष्मणदास सो भ्रात बड़े तिनने यह सोधि समापति कीने ॥९८॥ दोहा । इस नव युग पर युग धरै, शुभ सम्वत्सर जान भाद्रव धवक सु तीन गुरु पुरण किया। विधान ॥ ९९ ॥ याने छद रचे इते, दोहा पैंतालीस | पुन छप्पय इकवीस हैं, कवित रचे पैतीस ॥ १.० ॥ संख्या सव श्लोक मिल, युगशत और पचास । मल्प बुद्धि वरणो सु यह, बुधमन सोधो मासु ॥१०१॥
. ॥ इति समाधिशतक छन्दबद्ध सम्पूर्णम् ॥