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३५८] जैनसिद्धांतसंग्रह। भव प्यारी। देहरुको सम्बंध इतो अब पूर्ण हुऔ नहीं खेद पसारी। कार्यसरे नहीं या उनसे तुम राखहु नाहि रहै तन नारी। पुद्गलकी पर्याय त्रिया नर सोच लखो हग खोक निहारी ॥४॥ छप्पय छंद । भोग बुरे भव रोग बढ़ावत वैरीनीके । होवे विरस विपाक समय लगें सेवत नीके ॥ एकेंद्री वश होई विपति अतिसे , दुख पायो । कुंभर झलमलि सलम हिरण इन प्राण गमायो ॥ पंच करन वश होई नो जुगति घोर दुःखपावहि । इन त्याग त्रिया संतोष मन, जो मम नार कहावही ॥ ४२ ॥ भोग किये चिकाल धने त्रियकार्य सरोन कछू मुख पायो । इष्ट वियोग भनिष्ठ संयोग निरन्तर माकुलताप तपायो । दुर्लभ जन्म मुबीत गयो अब कालके गालहि में वपु मायो । सो त्रिय राखन कौन समर्थ वृथा कर खेद सो जन्म नशायो ॥४३॥ उप्पय छंद । जो प्यारी मम नारि सीख हित चित्त धरीको । शीलरत्न हद राख तत्व श्रद्धान सुकीजो ॥ धर्म विना भव भ्रमे काल बहु हम तुम सवही। गति चारों दुःखरूप घरी वृष गहो न कही। भव मम मुख वांछे नार तु, वृष दृढ़ाव तज भासतें । तुम भावनको फलभोग ही, शीघ माहु मो पास ॥४॥ दोहा । नारि बुलाय सम्बोषि इम सीख दई हितसान | अब निज पुत्र बुलाइयो, ममत्व निवारण कान ॥ १५॥
पुत्रादि ममत्व त्याग ।
छप्पय छंद । पुत्र विचक्षण मुनो भायु पुरण मब म्हारी । .: तुम ममत्व बुद्धि तनो खेद दुखको . करतारी। श्री निनवर कर . . धर्म भलीविधि पालन कीजो। पूजा नप तप दान शीलसम्यक्त्व