________________
जैनसिद्धांतसंग्रह।
[३५७
हमारी। एताही सम्बन्ध देह तुम्हरो अबधारी । तुम राखत ना रहै सोच अपना कर भाई । यह गति सनकी होई चेत देखो पितु भाई । मो करुणा भावत तुम तनी खेद पार क्यों दुःखमनो। वृषधार योग नित सुधिर हो ममत्वनसो अवतनो ॥६६॥ सवैयाजो दृढ़ व्याधि प्रसे तन भन्त सुवेदना दुर्जय भावत तेरी। कारण तास तने परणाम चिगे लख साहससे बुद्धि फेरी। पूरव संचित कर्म उदय फल आय कगो गद ने वपुरी। भिन्न सदा मम रूप निराकुल है शरणा निज मातमफेरी ॥३७॥ छप्पय छन्द । शरण पंच परमेष्टि बाह्य निन वृष जिनवाणी । रत्नत्रय दशधर्म शरण सुनहो चिद ज्ञानी । और शरण कोई नाहिं नेम हमने यह धारो। इस विधिसे उपयोग थाम कर एम विचारो । मरिहन्त देवगुरुद्रव्य गुण, पर्यायन निर्णय करै । तब निन सुरूपमें आयकर साहससे हदथिति धेरै ॥३८॥ सवैया १३ । वपु मानपिता तुम एम सुनो ममदेह स्नेह वृथा तुम धारो। को तुम को मैं हाटतनी गति प्रात पयानकरें जन सारो। रीति भरें घटाहट तनी तुम अन्तरके डगखोल विचारो । मापतनो हद सोच करो तुम मातम द्रव्य अनाकुल न्यारो ॥२९॥ छप्पय छन्द । यह सव मक्षी काल कालसे बचे न कोई। देव इन्द्र थिति पूर्णदेख सुख रहे जु सोई। यम किंकर ले नाय आपनी कथा कौन है । तन धारे सो मरे वृथा कर खेद जो न है। यह आजकाल मुवा मनुन सुन प्रति जिनवृष आदरो यह निरोपाय नगरीति है जिनवृषमन साहस घरो ॥
(स्त्री ममत्व त्याग ।) सवैया २३ । हे त्रिय देहतनी सुनसीख स्नेह तनो वपुसे