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३५६] जैनसिद्धांतसंग्रह । अनंत हगादिक भावको धारे ॥ ता अवलोक्त दुःख नशे ममता पियूषमु परितसारे। ज्ञायक ज्ञेयनको यह नीव पै ज्ञेयसे मिन्न अनाकुल न्यारे ॥ १८ ॥ व्यापक चेतन ठहरीठौर यथा इकलौन ढलीरस पागी । त्यों मैं ज्ञानका पिंडहूं पे व्यवहारसे देहप्रमाणसो मागी । निश्चय लोक प्रमाणाधार अनंत मुखामृतसे अनुरागी। मूसमही गल मोमगयो नम युक्त तदाकति देखहु सागी ॥ २९॥ दोहा । मैं अकलंक अर्वक थिर, मिलत न काहू मांहि । नशो देह भावे रहो, हमें न किहि विधि चाहि ॥३०॥ छप्पय छन्द । कहै एक नर सोच देह तुम्हरी तो नाही । पर याके संग ध्यान शुद्ध उपयोग व्हाही । एता वपु उपकार कहो सुन थिर चित भाई ॥ रत्न द्वीप नर माय एक झोपड़ी बनाई। बहुरत्न एपठावरे अग्निलगी बुझावे तव सुदर। जब बुझत न माने झोपडी रत्न लेय भागे मुनर ॥११॥ दोहा। त्यो मम संयम गुण सहित,रहो देह ना वैर। नशत उभय तो भानिये, संयम खो घेर ॥ ३२ ॥ संयम रहता देह बहु, क्षेत्र विदेहा नाय । तप कर चक्री इंद्र हो, अनुक्रम शिव थक पाय ॥२॥ मोह गयो माकुळ गई, ध्यान दिगाने कौन । इन्द्र चक्र धन्द्रसुर, विष्णु महेश्वर जौन ॥ ३४ ॥ सवैया-देह स्नेह करी किस कारण यह वपु ज्यों चपला चमकाई। नाहिं उपाय रखवनको बहु, औषधि मंत्र तंत्र बनाई। भो थिविपुण होई तवे सुर इन्द्र नरन्द्र हरा मृत्व थाई। दाव बनो हितसाधनको बहुलोग चिगावहि मैं न चिगाई ॥ ३५ ॥
(कुटुम्बादि ममत्व त्याग) उप्रय छन्द । अव कुटुम्बके लोग सुनो हित सीख
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