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जैनासद्धांतसंग्रह। पर द्रव्योंसे एकहि नानो । कालवली दृढगढ़ असौ कहि जन्म नरामरण फिर ठानो ॥ खेद कहो वश मोहतने सु विचार सने अब मूल दिखानो। मैं निन ज्ञायक भावनको कर्ता. मरु मुक्त सदा थिर मानो ॥२१॥ मो सत्संगसे देहपुने नग मो निकसे.तनको सब जारें। मानत देह रु जीव एकत्र नशे यह तो शठ रोय पुकारें। हाय पिता त्रिय पुत्र कलत्र सुमात हितू कहां जाय पधारें।
और भनेक विलाप करें मति खेद कलेश वियोग पसारें ॥२२॥ एम विचार करें सु विचक्षण मक्षण देख चको जग जाई । कौन पिता त्रिय पुत्र हितू सो कलत्र यहां किन कौनकी माई । को गृह माल कहा धन भूषण नात चली किनकी ठकुराई । ये सब वस्तु विनस्वर ज्यों स्वप्न में राज्य करे नर माई ॥२३॥ देखत इष्ट लगे यह वस्तु विचारत ही कुछ नाहिं दिखावे । सो इम जान ममत्व सुभान त्रिलोक पुदल जो दृढ़ भावे ॥ देह स्नेह तमो तिस ही विधि रश्चक खेद न मो चित्त पावे || जा उर हो यह देह प्रतक्ष विगार सुधार न मोह लखावे ॥१॥ देखहु मोहतनी महिमा पर द्रव्य प्रत्यक्ष विनाशिक ढेरी। है दुख मूल उभय मवमें जगनीव सवे इसमाहिं फंसेरी ॥ मूरख प्रीतिकरे मतिही अपना तन नान रखावन हेरी । मैं हकज्ञायक भाव धेरै सो लखों इस काल शरीरको वेरी ॥२५॥ दोहा । माखी वैठे खांड पर, मग्नि देख भगनाय। काल देहको त्यों भले, मो लख थिर न रहाव ॥२६॥ मरण योग्य पहिले मुभा, नीया मृतक न होय । मरण दिखावत नाहि मम, मर्म गया सब खोय ॥२७॥ सवैया २३॥ चेतनके मरणादिक व्याधि लखी न त्रिलोक त्रिकाल मंझारे। तो अब सोच करो किस कान.