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३५४] जैनसिद्धांतसंग्रह। मति मन्द क्षमादिक दशवृष ध्यावे । अन्तर भातम मांहि शुद्ध उपयोग समावे॥ को राग रुप मोह शिथि मति हो सो ज्ञानी । तिराव चिप ध्यान घर बहु गुण खानी । तब रन रम स्वाद आवे घनो मनुल मिन पांचों दाब| इस निश्चषष्टि विनोकता है सुश्ख जो मध्य भव ॥१६॥ मानंद रत नित रहे ज्ञान मय ज्योति उमारी । पुरुषाकार भमूर्ति चेतना बहु गुण धारी ॥ ऐसा आतमदेव भाप मानन बुधि प.गो । पर द्रव्योंस किसी भांति ना होवे रागी ॥ निम वीतराग ज्ञाता मुथिर अविनाशी परमड़ लखा। वपु पूग्न गलन अपास्वता हम नख तिन निमरस चख समष्टी नर सहा माणका भय ना माने | भायु अंत नब लखे स्वहित तब याविधि ठाने ॥ मायु अल्प इस देह तनी अब रही दिखावे। अब करना मम चेत सावधानी यह दावे | निम रणभेरीके सुनतही सुमट जाय रिपुपर झुके । त्यों कालवलोके भीतने पाहप ठाने भव चुके ॥१८॥ सब जिय सोच विचार लखो पुल परनायी। देखत उत्पति भई देखने पर खिर जायो । मैं सरूप इस लखो विनाशिप पहिले याको । सो अव अवसर पाय विले नासी यह ताको || मम ज्ञायक टारूप निम ताहि विधि भादरों। अब किसविधि देह नशे जू यह मैं तमाशगोरी कों ॥ १९ ॥ मम सरूप द्रग ज्ञान सुशख वीरन अनन्त मय । नर नारक पर्याय मेइ बहु भये मृषानम् ॥ जो पदार्थ लोक सुते तिन ही के कती। में चित अमल अड़ोल नहीं तिन कर्ता हत्तो ॥ वे आपहिं विटुडे मिळे पूरे गळे मचित सा । तो देह रखाया क्यों रहे मूल मर्म न पड़ों कदा ॥ २० ॥ संवैया २३॥ काल अनादि भरो दुःख मैं