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जनसिद्धांतसंग्रह । करे सु.जो, सो नर जग गुण खान । इन्द्र चक्रगति हो पुनः भनुक्रम में निर्वाण ॥ ७ ॥ देख गुमानीरामका, वचन रूप सुप्रबन्ध | लघुमति ता संकोचिके, रचे सु दोहा छंद ॥ ८ ॥ पिंगल व्याकरणादि कुछ, खो नहीं मति बाल । कंठ राखनेके लिये, रच बालवत ख्याल |॥ ९ ॥ रघु धी तथा प्रमादसे, शद मर्थ लख हीन | बुधमन सोधि उचारियो, हंसो न लख मतिक्षीण ॥१. मंद कषायोंसे जु हों, शांति रूप परणाम । तब समाधिविषि
आदरे, मरण समाधिसु नाम ॥ ११ ॥ सो मैं अब दृष्टान्तयुत, कहो त्रियोग सम्हार। भवि अहिनिशि पढियो सु यह, कर परणाम उदार ॥ १२ ॥ छप्पय छंद । सुता ज्यों गृह सिंहताहि इक पुरुष विचक्षण | जानत किय ललकार सिंह उठ देख ततक्षण। - हतन वृन्द रिपु तोहि निकट भायो यह तेरे ।। सावधान हो चे. करो पुरुषारथनेरे । नबलों रिपु कुछ दूर हैं, कर सम्हाल मीतो तिन्हें ॥ यह महत्पुरुषकी रीति ई,ढोल किये मावन कनें ॥१२॥ वचन सुनत यों सिंह गुफासे बाहर आयो । गर्ने धन निमि सुनो शत्रु हिय थिर न रहायो । जीवनको असमर्थ लान हस्ती सब कांपे। निर्भय हरि पौरुष सम्हाल नहीं सके नो नापे । त्यो समयज्ञानी नर सुधी मरणसमय विधिसेन कख । विहि जीवन निमपौरुष जे सकाउपाधिक भावनख ॥ १४ ॥ मावतकाल तटस्थ देख तत्र साहस ठाने ॥ कर्म संयोग संदेह इती थिति पूरण जाने । ताहीसे मम योग्य कार्य अब ढोल न कीजे । जो चूको यह दाब घोर
संसार पड़ीजे॥ अतिकठिन काकतालीयज्यों मनुनमन्म शुभवश लहा। .:..सो वृथा गमाया धर्मविन दौड़दौड़ चहुंगतिवहा ॥१५॥ र कषाय
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