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३५२] जैनसिद्धावसंग्रह। नहीं है । उमयातमरूप कथंचित सो, निरवाच कथंचित ता है ।। पुनि अस्ति अवाच्य कथंचित त्यों, वह नास्ति अवाच्य कथा ही है । उभयातमरूप अकथ्य कथंचित, एक ही. काल सुमाही है | हो ॥ १५ ॥ यह सात अभंग सुमाव भयो, 'सव यस्तु अभंग सुसाधा है। परवादिविनय करिवे कहँ 'श्रीगुरु. स्यादहिवाद अराधा है ।। सर्वज्ञप्रवच्छ परोच्छ यही, इतना इंत मेद भवाधा है। 'वृन्दावन ' सेवत स्यादहिवाद घटै जिससे भववाधा है। हो करुणासागर देव तुमी, निर्दोष तुमारा वाचा है। तुमरे वाचामें हे स्वामी, मेरा मन सांचा राचा है। हो ॥१॥
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(१२) समाधिशतक माया।
(लाला गुमानीलालजी कृत) दाहा-श्री आदीश्वर चरणयुग, प्रथम नमों पित ल्याय। प्रगट कियो युग आदि वृष, भनत सुमंगल याय ॥ १॥ सन्मति प्रमुसन्मति करण, बन्दत विन बिलात । पुनः पंच परमेष्टिको, नमो त्रिनग विख्यात ॥२॥ गौतम गुरु फिर शारदा, स्याहाद निस चिन्ह । मंगल कारण तासको, नमों कुमति हो भिन्न ॥२॥ मंगलहित नमि देव श्री, अरिहंत गुरु निग्रंथ । दयारूप वृष पोत भव, वारिधि शिवपुर पंथ ॥ ४ ॥ इस विधि मंगल करनसे, रहत उदगछ दूर । विघ्न कोटि तत्क्षण टर, वम नाशत ज्यों सूर ॥५॥ श्री सर्वज्ञ सहाय मम, सुवुद्धि प्रकाशो आनि । तो कवित्त दोहानमें, रचों समाधि चखानि ॥ ६ ॥ मरण समाधि