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जैन सिद्धांत संग्रह |
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गहीनो । फिर लोक निंद्य कारन तनो, साधर्मिनसे हित करो ।
तुमयुग भव सुख हो है सु सुख, सीख हमारी उर घरो ॥ ४६ ॥ सवैया २३ | देह अगवन वस्तु जगत्रयकी या संगसे मैली । कर्म गढ़ों घंन अस्थि जड़ी चर्म मढ़ी मल मूत्र की थैली ! नव मक द्वार सर्वे वसु जाम कुबाप घिनावनकी वपु गेली । पोषन हो दुःखदोषरे सुत सोखत याहि मिले शिव सेली ॥४७॥ दोहा । जो तुम राखें देह यह, रहे तो राखे घोर । मैं बरजो ना तोहि झुठ, करो सोच निन वीर ||१८|| सुन अनुक्रमसे गति सबनि, यहीं होयगी मीत। जिन वृष नवका बैठके, भव जल तर तन भीति ॥ ४७ ॥ दया बुद्धिसे सीख मैं देई तोहि कख पीर । होनहार तुम होइनो, रुचे सो कीजो धीर ॥ ५० ॥ यों कह सब परिवार त्रिय, सुत मित्रादिक भूर । मरण बिगाड़न लख तिन्हें किये पाससे दूर ॥ ५१ ॥ जो भ्राता सुत आदि गृहभार चलावन योग | सोंप ताहि हित सीख दे, ॥ १२ ॥ और मनुष्योंसे कछू, बतलानेको बतलाय कुछ, सल्प न रखे कोई ॥ ५६ ॥ दया दान मरु पुण्यको, जो कुछ मनमें होई । सो अपने कर से करे, करे विलंब न कोई ॥ ५४ ॥ साधर्मी पंडित निकट राखे इम बतलाय मो परणाम लखो चिगे, तुम दृढ़ कीजो माय ||१५|| छप्पय छंद । अब समदृष्टी पुरुष काळ निन निकट सुजाने । तत्र सम्हाल पुरुष थे सल्य तन साहस ठाने । शक्ति सार घर नेम एम मर्यादा कीजे । कर परिग्रह परिणाम रूप निज अनुभव कीजे । यह संशप मन होई जो, पूरण आयु न हो कदा | तो निज शक्ति प्रमाण
वजे जगतका रोग होई । ते बुलाय