________________
जैनसिद्धांतसंग्रह। [ ३४५ ही सर स्वच्छ हुआ कमल लहलहा ॥ हो दी. ॥ जब चीर द्रोपदीका दुशासनने था गहा । सब ही सभाके लोग कहते थे महा हहा । उस वक्त भीर पीरमें तुमने करी सहा । परदा ढका सतीका सुजस जक्तमें रहा ॥ हो दी। ॥ श्रीपालको सांगरविष जब सेठ.गिराया। उनकी रमासे रमनेको आया वो बेहया। उस वतके संकटमें सती तुमको जो ध्याया। दुखदर फद मेटके आनंद बढ़ाया ! हो दीनबंधु ॥ हरिपेनकी माताको जहां सौत सताया। रथ नैनका तेरा चले पछि यों बताया। उस वक्तके अनसनमें सती तुमको जो ध्याया । चक्रेश हो सुत उसकेने रथ जैन चलाया । हो० ॥ सम्यक्तशुद्ध शीलवती चंदना सती। निसके नगीच लगती थी नाहिर रती रती ॥ बेडीमें परी थी तुम्हें जब ध्यावती हेती। तब वीर धीरने हरी दुखद्वंदकी गती। जब अंजना सतीको हुआ गर्भ उजारा । तब सासने कलंक लगा घरसे निकारा ॥ वन वर्गके उपसर्गमें तब तुमको चितारा । प्रमुभक्त व्यक. जानिके भय देव निवारा हो ॥ सोमासें कहा जो तूं सती शील विशाला . तो कुंमतें निकाल मला नाग जुकाला || उस वक्त तुम्हें ध्यायके सती हाथ जुडाला ।। तत्काल ही वह नाग हुमा फूलकी माला ।हो ॥ ॥ जब रानरोग था हुआ श्रीपालरानको । मैना सती तब आपको पूजा इलामको ।। तत्काल ही सुंदर किया श्रीपालराजको। वह राजभोग भोग गया मुक्तराजको || हो० ॥ ११॥ जब सेठ सुदर्शनको मृषा दोष लगाया ! रानीके कहे भूपने सूलीप चढ़ाया । उस वक्त तुम्हें सेठने निज ध्यानमें ध्याया।सुलीसे उतार उको सिंहासनपै बिठाया