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३४४] जैनसिद्धांतसंग्रह। तुम्हारीका. क्या पाच पार सयाना है । श्री॥१२॥ दुखखण्डन श्रीमुखमण्डनका, तुमरा प्रन परम प्रमाना है। वरदान दया नसकीरतिका तिहुंलोक धुजा फहराना है || कमलाघरी कम लाकरनी ! करिये कमला अमलाना है । अव मेरी विथा अविलोक रमाति, रंच न वार लगाना है ।। श्री० ॥१॥ हो दीनानाथ अनाथस्तूि. जिन दीन अनाथ पुकारी है। उदयागत कर्म विपाक हलाहल, मोह विधा विस्तारी है । ज्यों आप और भवि जीवनकी तत्काल विथा निरवारी है । त्यों" वृन्दावन " यह अर्ज करे, प्रभु आन हमारी बारी है ॥ श्री. ॥१४॥
शेर। . हो दीनबंधु श्रीपति करुणानिधाननी। यह मेरी विथा क्यों न हो बार क्या लगी ।। टेक ।। मालिक हो दो नहानके जिनरान आपही। ऐवो हुनर हमारा तुमसे छिपा नहीं । वेनानमें गुनाह मुझसे बन गया सही। करके चोरको कटार मारिये नहीं ।। हो दीनबंधु ॥ दुखद दिलका आपसे जिसने कही । सही। मुश्किल कहर वहरसे लई है मुना गही | जस वेद औ पुरानमें प्रमान है यही । आनंदकन्द श्रीजिनंद देव है तुही ।। हो दीनबंधु ॥ हाथीप चढ़ी जाती थी सुलोचना सी ! गंगामें ग्राहने गही गरानकी गती । उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती ! भय रारके उवार लिया हे कृपापती ॥ हो दीनबंधु ॥ पावक प्रचंड कुन्डमें उमंड जब रहा । सीतासे शपथ लेनेको तब रामने कहा ॥ तुम ध्यानधार जानकी पग धारती तहां । तत्काल