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जनसिद्धांतसंग्रह । [३३९ ठानी जी । थिति पूरन जानी, मरन विसूरियौ जी ॥ ११॥ यौ दुख भवकरांनी, भुगतो बहुतेरा जी। प्रभु! मेरा कुछ कहत, पार नं पाईये जी | मिथ्यांमदमाताजी, चाही नित साता नी। सुखदातां जगत्राता, तुम जाने नहीं जी ॥ १४ ॥ प्रभु भागनि पायें जी, गुन श्रवण सुहाये जी, तट आयौ सेवककी विपदा हरी जी ॥१५॥ भववास वसेरा जी, कब होय निवेराजी । सुख पावे जन बेरा, स्वामी ! सो करी जी ॥ ६॥ तुम शरनसहाई जी, तुम सज्जन भोई जी । तुम भाई तुम बाप, दया- मुझ लीनिये भी ॥ १७॥ 'भूधर कर मेरे जी, गड़ो प्रमुओर नी। निनदास "निहारौं, निरमय कीजिये जी ॥१८॥ . . . ढाल-परमादी। ... अहो! जगत गुरु देव सुनिये अरज हमारी | तुम हो दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी ॥१॥ इस भव वनमें वादि, कार अनादि गमायौ। भ्रमत चहूंगतिमाहि, सुख नहिं दुख बहु पायो गरि॥ कर्म महारिपु नोर, एक न कान करें जी । मनमाने दुख 'देहि काइसौं न डरे नी ॥॥ कबहूं इतर निगोद, कबहू नरक दिखावें । सुंर नरं पशुगतिमाहिं, वहुविधि नाच नचा प्रभु! · इनके परसंग, भव भवमाहि बुरोनी ने दुख देखे देव !, तुमसौं नाहि दुरे नी । एक जन्मकी बात, कहि न सको मुनि स्वामी। तुम अनन्त पर्माय, मानत अंतरजामी ॥६॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरें। कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ॥9॥ ज्ञान महानिधि लंटि, रंक निकल करिडारचो। हनही तुम