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जनसिद्धांतसग्रह। मुझनाहि, हे जिन! अंतर पारयो पाप पुन्यकी दोय, पायनि रीडारी । उनकाराग्रहमाहि, मोहि दियो दुख मारी ॥९॥ इनको नेक विगार, मैं कछु नाहिं कियो जी। विनकारन जगवंद्य !, बहुविधि र लियो बी ॥१०॥ अत्र आयो तुम पास, मुन कर सुजस तिहारो। नीति निपुन जगराय ! कोने न्याव हमारों ॥ ११ ॥ दुष्टन देहु निकास, साधुनकौं राति लीन । विनवै 'भूरदास, हे प्रभु ढील न कीने ॥१२॥
दोहा (राग-भरथरी)। ते गुरू मेरे उरु बसौ, ने भव-गलधि-मिहान : माप तिर पर तारहीं, ऐसे श्री ऋपिरान ॥ ते गुरु गा रोगउरग-विल वधु गिप्यो, भोग भुजंग समान । कदलीतरु संसार है, त्यागी सम यह जान ॥ ते गुरुः ॥ ३॥ रतनत्रय निधि र धरै, अरु निग्रंथ निकाल : मारयो काम स्वीसको, स्वामी परम दयाल ॥ ते गुरु० ॥ ४ ॥ पंत्र महावन आदर, पांचौ मुमति-समेत । तीन गुपति पा सदा, भारअमर पदहेत ना ते गु० ॥२॥ धर्म घौं दशलक्षमी, भर्वि भावना सारासह परसिह वीस ह, चारित-: रतन भडार । ते गु० ॥६॥ जेठ तपे रवि आकरो, सूखै सरवर नौरशैल-शिखर मुनि तप तपे, दाझै नगन शरीर ॥ ते गु०. 15. पाक्स रैन डरावनी, वरसै जलपर धार । तस्वल.निवसें. साहसी, बाबै झझावार ॥ ते गु• ॥ ८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाह सब वनराय । ताल तरंगानिक तटै, ढाढ़े ध्यान लगाय - ॥ गु० ॥९॥ इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों कालमझार ।