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जैन सिद्धांतसंग्रह |
जब मै पानी पंखरां थरहरे सबकी काय । तव नगन निवर्से चोटें अथवा नदी तीर । ते साधु मेरे मन वर्षे मेरी हरों पाठक पीर ॥७॥ कर जोर भूघर' चीनवें कब मिलें वे मुनिराम । यह आस मनकी कब फलै, अरु सरे सगरे कान । ससार विषम विदेशमें जे विनाकारण वीर ने साधु मेरे मन चसो, मेरी इरा } पातक पीर ॥ ८ ॥
( १ )
त्रिभुवनगुरु स्वामी जी, करुनानिधि नामी जी । सुनि अंरजाभी मेरी वीनती जी ॥ १ ॥ मैं दास तुम्हारा जी, दुखिया अति भाराजी । दुख मेटनहारा, तुम जादोपती जी ॥ - ॥ श्रम्यौ संसारा जी, चिर विपति भण्डारा जी कहिं सारा न सार चहूंगति डोलिया जी ॥ ३ ॥ दुख मेरु समाना ओ. सुख सरसा दाना भी, अब जान घर ज्ञान, तराजू तोलिया जी ॥ ४ ॥ थावर तन पाया बी, त्रसनाम घराया नी ॥ कृनि कुन्यु कहाया, मरि-मंत्ररा भया जी ॥ - ॥ पशुकाया सारी जी, नारा विधि घारी जी - जलचारी · थलचारी. उड़न पखेरुवा जी ॥६॥ नरकनके माही जो, दुखधोर 'महां है जी । पुनि और जहां है, सरिता खारकी जी ॥७॥ जहां असुर संघारें जी, निन चैर विचारें जी | मिठ बांधे अरु मा, निर्दयी नारकी जी ॥ ८ ॥ मानुप अवतारै भी, रह्यो गर्ममंझार जी - रहि रोयौ जहां जनमत, बारे मैं घनों जी ॥ ९॥ भेवन तन रोगी बी, भयो विरहवियोगी भी । फिर भोगी बहु वृद्धापनकी वेदना जी ॥ • ॥ सुरपदवी पाईजी, रम्भा उर बाई जी । तहां देखि पराई, संपति झूरियो जी ॥१-१॥ माला मुरझानी भी, नत्र आरति