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जैनसिद्धांतसंग्रह। । ३३७ [११] विनती संग्रह।
गुरुविनती। वन्दौं दिगम्बरगुरुचरन, जग तरन तारन जान। भे भरम भारी. रोगको, हैं राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह विन कभी, नहि करें कर्म नीर । ते साधु मेरे उर वसों, मेरी हरौ पातक पार ॥ १॥ यह तन अपावन अशुचि है, संसार सकल असार । ये भोग विषपकवानसे इस भांति सोच विचार ॥ तप विरचि श्रीमुनि वन वसे, सब त्याग, परिग्रहभीर । ते साधु मेरे उरु. वसी मेरी हरौ पातक पीर ॥ १ ॥ जे काच कंचन सम गिनें, गरि मित्र.एकस्वरूप निंदा: बढ़ाई सारिखी; बनखंड शहद अनुश । सुख दुःख जीवन मरनमें, नहिं खुशी नहिं . दिलगीरी ते साधु-मेरे उरु वसौ, मेरी हगै पतक पीर ॥ ३ ॥ जे वह परवत वन बसें, गिरि गुहा महल मनोग । सिल सेन समता सहचरी, शशिकिरण दीपकजोग । मृग मित्र भोजन तप मई. विज्ञान निरमल नीर । ते साधु मेरे मन वसौ, मेरी हरी पातक : वीर ॥॥ सूख सरोवर जल भरे, सूखें तरंगनि तोय । वाट वटोही ना चलें, जहं घाम गरमी होय । तिस काल मुनिवर तप तपें,. गिरिशिखर ठाड़े धीर । ते साधु मेर मन वसौ, मरी हरौ पातक पीर ॥५॥ धनघोर गरले धनघटा, जल प. पावसकाल.। चहुंआर चमकै वीजुरी, अति चलै शीतल व्याक (र) | तरुहेट तिष्ठं तब जती, एकांत अचल शरीर । ते साधु मेरे मन वसौ, मेरी हरौ पातक पीर ॥६॥ जब शतम.स तुमारनौं, दाहै सकल वनराय।
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