________________
जैनासिद्ध तिसंग्रह
[ २८३
घननं घननं घनघट जैं। हमदं हमदं मिरदंग सनैं। गगनांगणगर्भगता सुंगतों । ततता ततता अतता वितता ॥ ६ ॥ धृगतां घृगतां गति बाजत है। सुरताल रसाल जु छाजत है । सननं सननं सननं नभर्मे । इकरूप अनेक जु धार भनेँ ॥ ७ ॥ कइ नारि सुबीन बजावतु हैं । तुमरौ जस उज्जल गावतु I करतालविर्षे करताल घरें । सुरताल विशाल जु नाद करें ॥ ८ ॥ इन आदि अनेक उछाहभरी । सुर भक्ति करें प्रभुजी तुमरी । तुमही जगजीवनके पितु हो। तुमही विनकारनके हितु हो ॥९॥ तुमही सब विघ्न विनाशन हो । तुमही निज आनंदभासन हो । तुम्ही चितचितितदायक हो । नगमाहिं तुमी सब लायक हो ॥ तुमरे पनमंगलमाहिं सही । जिय उत्तम पुण्य लियौ सब ही । हमको तुमरी सरनागत है । तुमरे गुनमें मन पागत है ॥ ११ ॥ प्रभु मो हिय आप सदा वसिये। जबलौं वसुकर्म नहीं नसिये । तबलौं तुम ध्यान हिये वरतो । तबलौं श्रुतचिंतन चित्तरतो ॥१२॥ तबलौं व्रत चारित चाहत हौं। तबलौं शुभ भाव सुगाहत हौं । तबलौं सतसंगति नित्य रहौ । तबलौं मम संजम चित गहौ ॥१३ जब नंहि नाश करौं अरिको । शिवनारि बरौं समताधरिको । यह द्यो तब हमको जिनजी। हम जाचत हैं इतनी सुननी ॥१४॥ घत्ता - श्रीवीर जिनेशा नमितसुरेशा, नागनरेशा भगतिभरा ।
वृंदावन ध्यावै भक्ति बढ़ावै वांछित पावै शर्मवरा ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय पूर्णार्थ्यं निर्वपामीति स्वाहा || दोहा - श्री सनमतिके जुगलपद, जो पूजहिं वर-प्रीत
"
- वृन्दावन सो चतुरनर, लहें मुक्त नवनीतः ॥ १.६ ॥
·
·
: