________________
२७२ ]
जैनमिद्धांतसंग्रह ।
ही, आनंद मंगळदाई ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा || मलयागिर केशर मंति सुंदर कुमकुम रंग बनाई । घार देव जिन चरनन आगे भक् माताप नसाई || पारसनाथ • || सुगंध || मोती सम मति उनक तन्दुरु ल्यावो नीर पखारो । अक्षय पदके हेतु भावसो श्री जिनवर ढिग धारो || पारस० ॥ अक्षनं ॥ वेळा भर मचकुन्द चमेली पारभासके ल्यावो । चुन चुन श्री जिन मग्र चढ़ाऊं मनवांछित फल पावो || पाम्म० ॥ पुत्रं ॥ वावर फेनी गोमा भादिक घूतमें लेत पकाई कंचन थार मनोहर भरके चरनन देऊ चढ़ाई || पारस • || नैवेरं || मन्मय दीप रतनमय लेकर नगमग जोत जगाई । निक आगे भारति करके मोह तिमिर नश नाई ॥ पारस || दीप || चुग्न का गळयागिर चन्दन धूपदशांग बनाई तट पावकम खेय भावसों कर्म नाश हो जाई ॥ पारसनाथ • ॥ धूपं ॥ श्र फल आदि दम सुपारी भांत भांतके कावो । श्री जिन चरन चढ़न्य राशि फल पावो ॥
पारस० ॥ फलं ॥ जल गवादिष्ट द ले अर्ध बनावो भाई । नाचत गावत हर्ष भावसो कंचन था अब ई ॥ पास० ॥ १६ ॥ गीतका छंद ॥ मन वचन क य त्रिशुद्ध पश्वनाथ सुपुत्रिये ।
मल मादि अर्ध बनाय विमन मक्ति
•
सुजये ॥ पूज्य पारस
नाथ जिनवर सकल सुख दातारमी । जे १२ हैं नरनार पुमा
कहत सुःख नपारभी || पूर्णाध ॥