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जैनसिद्धांतसंग्रह।
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यह सोनागिरि रचना अपार । वरणन कर को कवि लहै पार ॥१२॥ मति तनक बुद्धि आशासुपायं | वश भक्ति कही इतनो सुगाय॥ मैं मन्दबुद्धि किम कहों पार । बुद्धिवान चूक लीजो सुधार ॥१६॥ दोहा-सोनागिरि नय मालिंका, लघु मति कही बनाय ।
पढ़े सुने जो प्रीतिसे, सो नर शिवपुर जाय ॥ १७॥ . __ इत्याशीर्वादः । इजिश्री सोनागिरि पूना सम्पूर्ण ।
" (२३) विवतपूजा ।
अडिल्ल-यह भवजन हितकार, मु रविव्रत मिन कही। करहु भव्यजन लोग, सुमनदेके सही। पूनो पार्थ जिनेन्द्र त्रियोग लगाय। मिट सकल संताप मिले निध मायके ॥ मतिमागर इक सेठ कथा ग्रन्थन .कही । उनही ने यह पूजा कर आनन्द
नही। ताते रविव्रत सार, सो मविनन कीजिये । सुग्व संपति · मन्तान, मतुल निघ लीजिये ।। . दोहा-प्रणमो पार्थ जिनेशको, हाथ जोड़ सिर ‘नाय |. परभव सुखके कारने, पुना करूं बनाय ॥ एतवार व्रतके दिना, एही पूजन ठान | ता फल सुर सम्पति कहें, अनुक्रमतें निर्वाण ॥ ॐड्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र भत्र अवतर अवता संवौषट् । पत्र तिष्ठ तिष्ठ :: । मत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अष्टक-उज्जल जल भरके मति लायो रतन कटोरन माहीं। घार देत मति हर्ष बढ़ावत जन्म नरा मिट नाहीं ॥ पारसनाथ मिनेश्वर पूनों रविवतके दिन भाई । सुख सम्पति बहु होय तुरत