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१६८] जैनसिद्धांतसंग्रह। चार बार यह बिनती करता हूँ में पतित दुखी दिलसे ॥३॥ तुम प्रमु करुणासागर तुम ही मशरण शरण जगत स्वामी । दुखित मोह रिपुसे मैं या करता पुकार जिन नामी ॥ ४ ॥ एक गांवपति भी जव करुणा करता प्रबल दुखित जनपर । तब हे त्रिभुवनपति तुम करुणा क्या नहीं करेंगे मुझपर ॥ ५ ॥ विनती यही हमारी मैटो ससार भ्रमग भयकारी। दुखी भयो मैं भारी तातें करता पुकार बहु वारी ॥६॥ करुणामृत कर शीतल भव तप हारी चरण कमल तरे। रहें हृदयमें मेरे जब तक हैं कर्म मुझे जग घेरे ॥ ७ ॥ पद्मनन्दि गुण-बंदित भगवन् ! संसार शरण उपकारी। अतिम विनय हमारी करुणा कर करह भव जलधि पारी ॥ ८॥
[३४] मंगलाष्टक। श्रीमन्ननसुरासुरेन्द्रमुकुट-प्रद्योतरतप्रभा । भास्वतपादनखेन्दवः प्रभावनांमोधाववत्यायिनः ।। ये सर्वे जिनसिद्धसूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः । म्तुत्या योग्यजनैश्च पंचगुरुवः कुर्वन्तु वे मंगलम् ॥ १ ॥ नामेयादि मिनप्रशस्तबदनाः ख्याताश्चतुर्विशति । श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रणो हादशः ।। ये विष्णु प्रतिविष्णुलालघराः सप्तोतराविंशति । त्रैलोक्याभिपदात्रिषष्टि पुरुषाः कुवन्तु ते मंगलम् ॥ २ ॥ ये पंचौषधिऋद्धयः श्रुततपे वृद्धिंगताः पञ्च ये।