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जैनसिद्धांतमंग्रह। [१६७ सुरलोक ऊपर मागमें अरु अंतमें शिवलोक है | लोक) १० दुर्लभ्य नित्य निगोदसे पर्याय थावर पावना । दुर्लभ्य त्रस पर्याय पंचेंद्रिय मनुज श्रावकपना ॥ दुर्लभ म आयु, निरोगता, सत्संग संयम भावना । दुर्लभ मिलो यह योग "मणि" लहि "बोधि" कर्म खिपावना जो है अहिंसारूप वह हो धर्म जगत शरण्य है। निज शुद्ध भाव अभिन्न नित्य पवित्र मित्र-अनन्य है। स्वर्धेनु, चिन्तामाणि कल्पतरु धर्मके किंकर सभी। सब इष्ट दायक धर्म है "माग" धर्म मत भूलो कभी। (धर्म) १२ ___ उपसंहार-यह अनित्ये असहाय जगत बहु दुखमय मानो । मत अकेला जीव बन्धु सब अन्य प्रमानो ॥ दह अशुचिं नहिं नेह योग्य आश्रव दुखकारी। सर्वर समता रूप निर्भर शिव सुखकारी ॥ इस चौदह राजू लोक दुलभ निज निधि पावना। जग शरण धर्म ‘माण" चिंतिये इम नित बारह भावना।.
(३३) करुणाष्टक मका - (पं. पन्नालाल विशारद महरौनी कृत ) हे त्रिभुवनं गुरु जिनवर, परमानन्दैक हेतु हितकारी। करहु दया किङ्करपर, प्राती ज्यों होय मोक्ष सुखकारी || In हे अर्हन् भवहारी, भव थितिसे मैं भयो दुखी भारी। दया दीन पर कीने, फिर नहिं भव वास होय. दुखकारी ॥२॥ नग उद्धार प्रमो ! मम कनि, उद्धार विषम भव जलसे ।