________________
जनसिद्धावसंग्रह। द्रव्य लिंग धारी जे जती | नव ग्रीवक ऊपर नहिं गती ॥. नवहि अनोचर पंचोचरा ।। महामुनि बिन और नहिं धरा ॥ २४ ॥ कई वार जीव सुर भयो । पणके इक पद नाहीं गह्यो । इंद्र भयो न शचीहू भयो। लोकपाल कबहूं नहीं थयो ॥ २५॥ लोकांतिक . हूवो न कदापि । नहीं अनोत्तर पहुंचो आप । ए पद पर बहु भवनहिं धरै । अल्प काल में मुक्ति हि वरै ॥ १६ ॥ है विमान सरवास्थ सिद्धि । सबतें ऊंचो अतुलस रिद्धि ॥ ताके सिरपर है शिवलोक । परै अनंतानंत अलोक ॥ २७ ॥ गत्यागत्य देव गति भनी । अब सुन भाई मनुप गति तनी। चौवीसी दंडकके माहि। मनुप नाहि यामैं शक नाहि ॥२८॥ मोक्षहू पावै मनुष मुनीश ! सकल घराको जो अवनीश || मुनि विन मोक्ष नहीं कोऊ वरे। मनुष विना नहिं मुनिको तरै ॥ ९॥ सम्यकदृष्टि ने मुनिराय। भवनल उतरें शिवपुर जाय । नहां जाय अविनाशी होय ॥ फिर पछि आवें नहिं कोय ॥३०॥ रहे शाश्वते शिवपुर माहि। मातम राम भयो सत नाहिं ॥ गति पर्चास कहीं नरवनी। आगति फुनि बाईसहि भनी ॥१॥ तेजकाय अरु वाई जुकाय । इन बिन और सबै नर थाय । गति पचीस आगत बाईस ॥ मनुषतनी जो भाषी ईस ॥३२॥ ताहि सुरासुर आतमरूप ॥ ध्यावें चिदानन्द चिद्रूप ॥ तौ उतरो भवसागर भया। और न शिवपुर मारग लया
॥२९॥ यह सामान्य मनुष्यकी कही। अब मुनि पदवीधरकी सही। तर्थिकरको दोय आगती । स्वर्ग नरकतें आवें सती ॥३४॥ फेरिन गति धार नगदीस । जाय विराज नगके सीस ॥ चक्री अर्धचक्री अरु हली । सुर्ग लोकतें आवें बली ॥१९॥ इनकी आगति,