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जैनसिद्धांतसंग्रह। [१४९ अब सुन नारककी गति सही ॥१६॥ नरक सातवेंको जो जीव । पशुगति ही पावै दुखदीव ।। और सब नारक मर नर पहुँ। दोउ गति आवै पर वसू ॥१९॥ छटेको निकसैं जु कंदांप। सम्यक् सहित श्रावगनिःपाप | पंचम निकसौ मुनिहूं होय । चौथेको केवलिहू कोय ॥ १३ ॥ तीने नर्कको निकंसो नींव तीर्थकर भी हो नगपीव ॥ यह नारककी गत्यागती । भाषी जिनवाणीमें सती ॥१४॥ तेरह दंडक देवनिकाय । तिनको भेद सुनों मनलायं । नर तियेच पंचेंद्री विना । औरनको नहिं सुरपद गिना ॥ १५ ॥ देव मर गति पांच लहाहि । भूजल तरुवर नर तिर माहि ॥ दूजे सुरग उपरले देव । थावर है न कहो जिनदेव ॥१६॥ सहस्त्रारतें ऊंचे सुरा । मरकर होवें निश्चय नरा । भोगभूमिके तिर्यंच नरा । दूजे देवलोकः परा ॥१७॥ नाय नहीं यह . निश्चय कही। देवन भोग भूमि नहिं गही ॥ कर्मभूमियां नर अरु ढोर । इन बिन भोगभूमिकी ठौर ॥ १८ ॥ जाइन ताते आगति दोई । गति इनको देवनकी होई ॥ कर्मभूमि या तिर्यग बुद्ध । श्रावकवत धर वारम शुद्ध ॥१९॥ सहसार ऊपर तियच ॥ जाय नहीं.तज है परपंच । अव्रत सम्यकदृष्टी नरा ॥ वारम ते ऊपर नहि धरा ॥२०॥ अन्यमती पंचागिनि साध । भवनंव्यक से जाह न वाद ॥ परिव्राजक त्रिदंडी देह । पचम पर न उपन . नेह ॥२१॥ परमहंस नामें परमती ॥ सहसार ऊपर नहिं गती। मोख न पावें परमत मांहि । जैन बिना नहि कर्म नसांहि ॥२२॥ श्रावक आर्य अणुव्रत धार। बहुरि श्राविका गण अविकार it सौलह स्वर्ग परै नहिं जाय । ऐसो मेदं कहें जिनराय ॥ २३ ॥