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जनसिद्धांतसंग्रह। । (२७) चौवीस दंडका दोहा-बन्दो वीर सुधीरको, महावीर गंभीर ।
वर्द्धमान सन्मति महां, देवदेव अतिवीर ॥१॥ गल्यागत्य प्रकाश जो, गत्यागत्य वितीत । अद्भुत अतिगतसुगति जो, जैनेश्वर नगजीत ॥ २॥ नाकी भक्ति विना विफल, गए अनंते काल । अगिनत गत्यागति धरी, घटो न जगननाल ॥ ३ ॥ चौबीसौ दंडक वि. घरी अनंती देह । लख्यो न निनपद ज्ञानबिन, शुद्ध स्वरूप विदेह ॥१॥. जिनवाणी परसादत, लहिये आंतमज्ञान । दहिये गत्यागत्य सव, गहिये पद निर्वाण || II चौबीसौ दंडक तनी, गत्यागति मुनि लेहु। . : .
सुनकर विरकत भाव घर, चहुंगति पानी देहु ॥६॥ चौपाई-पहिलो दंडक नारिफ तनो। भवनपती देस दंडक भनौं । ज्योतिस व्यंतरे स्वर्ग निवास । थावर पंचें महादुख रास ॥ ७॥ विकलत्रय अरु नरे तिर्यछ। पंचेंद्री धारक परपंच ।। यह चौवीस दंडक कहे । अब सुन इनमें भेद जु लहे || नारककी गति आगति देय । नर तिर्यच पंचेंद्री जोय ॥ नाय असैनी पहला बगै । मन विन हिंसा कर्म न पगै॥ ९॥ सरीसर्प दूजे लौं जाय। अरु पक्षी तीजे ली थाय ॥ सर्प जांय
चौथे लौं सही । नाहर पंचम आगे नहीं ॥१०॥ नारी छटे लगही 'माय । नर अरु मच्छ सातवें थाय ॥ एतौ नारक आगत कही।