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जैन सिद्धांत संग्रह ।
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एक हि जान । गतिकी रीति कहूं जो वखानि । चक्रीकी गति
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तीन जो होय । सुरग नरक अरु शिवपुर जोय ॥ ६६ ॥ तपं धारै तौ शिवपुर जांय । मेरे राजमें नरकहि ठांय | आखरि मैं होंय पद निर्वाण । पदवी धारक बड़े प्रधान ॥२७॥ बलभद्रनको दोयहि गती । 'सुरंग जांहिं के है शिवपती ॥ तप घारें एशिय भया । मुक्ति पात्र ये श्रुत मैं रा ॥ १८ ॥ अर्द्धचक्री को एकै
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भेद । नारक जांय लहैं अति खेदः ॥ राज मांहि जो निश्चय मर । तद्ध ं मुक्तिपन्थ नहि घरें ॥ १९ ॥ आखिर पार्ने जिनवर लोक | 'पुरुष शलाका शिवके थोक || ये पद पाए कबहुं नहिं जीव ॥ ये पद पाय होय शिव पीव ॥ १०॥ और हु पद कइयक नहिं हे | कुलकर नारदपद हु न लहे || रुद्र भए न मंदन नहीं गए । जिनवर मातपिता नहिं थए ॥ ४१ ॥ ये पद पाय जीव नहीं रुलै । थोड़ेहि दिन में जिन सम तुलै ॥ इनकी आगति श्रुतमें जांनि । गतिको भेद कहूं जो वखांनि ॥ ४२ ॥ कुलकर देव लोक ही गर्दै । मदन सुरग शिवपुरको लहैं । नारद रुद्र अधोगति नाय । लहैं कलेश महा दुःख पांय || ४६॥ जन्मांतर पार्वै निरवान | बड़े पुरुष ने सूत्र प्रमान ॥ तीथकरके पिता प्रसिद्ध | स्वर्ग जांयकै होहें सिद्ध | ४४ ॥ माता स्वर्ग लोक ही 1 जां । आखिर शिवपुर लोक लहांय। ये सब रीति मनुषकी कही । अब सुन तिरयंचन गति सही । ४१ । पंचेंद्री पशु मरण कराय । चौवासौ दंडकमै माय ।। चौवीसौ दंडकतै मरे । पशू
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४० पी - स्वामी ! ४३ मदन- कामदेव | ४४ जन्मांतर थोडे भव पीछे मोक्ष पावे है । ४७ पथ- रास्ता । ४९ काय देह |