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नासिद्धांतसंग्रह १३७ चान | तांको पावतं होय कल्याण ॥५१॥धर्म स्वभाव आप श्रद्धान । धर्म नशील न न्हौन न दान | बुधजन गुरुकी सीख विचार । गहो धर्म आपन निर्धार ॥१२॥ . . . .
अथ द्वितीय हाल २८ मात्रा (नरेन्द्रः छन्द) इसमें प्रथम ढालमें कहे हुवे प्रयोजनका कारण, ग्रहीत अग्रहीत मिथ्या दर्शन, ज्ञान तथा चारित्रका कथन है। . .. . . सुन रे जीव कहतहो तुझसे तेरे हितके काजे । हो निश्चल । मन जो तू धारे तो कुछ इक तोहिलाजे ॥ निस दुःखसे थावर. । तनपायो वरण सको सो नाहीं । अठारह बार मरा और जन्मा एक स्वासके माहीं ॥१॥ काल अनन्तानन्त रहो यों फिर विक:त्रय हुवो। बहुरि असैनी निपट अज्ञानी क्षण क्षण जन्मो मूवो । पुण्य उदय सैनी पशु वो बहुत ज्ञान नहीं भालो। ऐसे जन्म गए कौवश तेरा जोर न चालो ॥ २ ॥ जबर मिलों तब तोहि.
सतायो निबल मिलो ते खायो । मात. त्रिया सम भोगी पापी. • तातें नर्क सिधायो । कोटिक विच्छू कारें जैसे ऐसी भूमि नहां
है। रुधिर राषि जलछार बहे नहां दुर्गघि निपट तहां है ॥२॥ घाव करें असिपत्र अंगमें शीत उष्ण तन गालें । कोई काटें करवत गहिकर केई पावक जालें यथायोग्य सागरस्थिति भुगतें दुःखका अन्त न आवे । कर्म विपाक ऐसा ही होवे मानुषगति । तब पावे ॥३॥ मात उंदरमें रहै गैंद हो निकसत ही बिललावे.।
४ सागर-की गिणती बहुत ही बड़ी है जो किरोड़ॉन. किरोड़ वर्ष बीतं जाय "वो भी एक सागरकी स्थिति पूरी न हो। इसे त्रिलोकसारादि ग्रन्थों में देखना चाहिये ।। . . . .. .......
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