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जनसिदांवसंग्रह। अंसार महान । सार आपमें आपा जान । सुखके दुख दुखसे मुख' होय। समता चारों गति नहिं कोय ॥३॥ अनन्तकाल गति गति दुख सह्यो। बाकी काल अनन्ता कह्यो। सदा.अकेला चेतन एका तो माही गुण बसत अनेक ॥४॥ तू न किसीका तार न कोय ।
तेरा दुख सुख तोको होय । यासे तुझको तू उरधार । परद्रव्योंसेः • मोह निवार ||५|| हाड़ मांस तन लिपटा चाम । रुधिर मूत्रमल
पूरित धाम । सो भी थिर न रहै क्षय होय । याकों तने मिले • शिवलोय ॥ ६॥ हित अनहित तनकुलजनमाहिं । खोटीबानि .
हरो क्यों नाहिं । यासे पुद्गल कर्म नियोग ॥ प्रणवे दायक सुख दुःख रोग ॥ ७ ॥ पांचों इंद्रियक तज फैल | चित्त निरोप लागि शिवगैल । तुझमें तेरी तू कर सैल । रहो कहाहो कोल्हु बैक ॥६॥. तन कपाय मनकी चलचाल | ध्यावो अपना रूप रसाल | झड़े. . कर्म बन्धन दुःखदान । बहुरि प्रकाशे केवलज्ञान ॥९॥ तेरा जन्म हुआ नहीं जहां । ऐसो क्षेत्र जो नाहीं कहां ॥ याही जन्म
भूमिका रचो । चलो निकलतो विघिसे बचो ॥१०॥ सब व्यवहार • क्रियाको ज्ञान | भयो अनतेवार प्रधान। निपटकठिन अपनी पहि
८ चित्त निरोध-मनको पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे रोककर मोक्षके रस्ते पर लगा शुद्ध सम्यक्त पालो ।
१. सब व्यवहार क्रियाका ज्ञान-इस जीवने जितने संसारमें इलम हुनर है । संघारी कर्तव्यका ज्ञान अनन्ती ही वार पाया है। इनके पानेसे जीव आत्माको कुछ भी सुख नही हुआ, .चारों गतिक दुःख भोगता. लता ही फिरा । यदि एक बार भी सम्यक्त पालेता तो अनंते . जन्ममरणके दुखोंसे छूटकर शाश्वते मुख भोगता ।". . .