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जैनसिद्धांतसंग्रह। . . [:१३३ annimmmmmmmmmmmmmmmmmm जलधि तुम देव सकल त्रिभुवनमें व्यापै । मंग तरंगिनि विकंथ बाद. मल मलिन उथापै ॥ मन सुमेरु सों मथै ताहि जे सम्यकज्ञानी । परमामृत सों तृप्त होहिं ते चिरलों प्राणी ॥१.८॥ जो कुदेव छवि हीन बसन भूषण अभिलाष । बैरी सों' भयभीत होय. सो आयुध राखै ॥ तुम सुन्दर सर्वंग शत्रु समरथ नहिं कोई ॥ भूषण बसन गंदादि ग्रहण काहेको होई ॥ १९ ॥ सुरपति सेवा करै कहा प्रभु प्रभुता तेरी। सोशलाधना लहै मिटै जग सो जग फेरी । तुम भव नलघि जहाज तोहि शिव कंत उचरिये । तुही ' जगत् जनपाल नाथ थुतिकी थुति करिये ॥२०॥ वचन जाल नड़ रूप आप चिन्मूरति झाई । तातै थुति आलाप नाहिं पहुंचे तुम नाई। तो भी निष्फल नाहिं भक्तिरस भीने वायक । सन्तनको सुरतरु समान वांछित वर दायक ॥२१॥ कोप कमी नहिं करो प्रीत कबहुं नहिं धारो। अति उदास बेचाह चित्त जिनरान तिहारो ॥ तदपि आन जग वहै वैर तुम निकट न लहिये । यह प्रभुता जग तिलक कहां तुम बिन सरधैये ।। २२॥ सुर तिय गावै सुयश सर्व गति ज्ञान स्वरूपी ॥ जो तुमको थिर होहि नमैं भवि आनन्द रूपी ॥ ताहि क्षेमपुर चलन बाट वाकी नहि हो है.। श्रुतिके सुंमरण माहिं सोन कब ही नर मोहै ॥ १३ ॥ अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चितमें धार | आदर सो तिहुंकाल माहि: जग थुति विस्तारै ।। सो सुकृत शिवपन्थ भक्ति रचना कर पूरै पंचकल्याणक ऋद्धि पाय निश्चय दुख चूरै ॥२४॥ अंहो जाता, पति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि तारे । तुमगुण कीर्तन माहि कौन. हम मन्द विचारे । स्तुतिछंल सों तुम विषै देव आदर विस्तारे।