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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। उरमें निबहे है। वासों तवक्षण सकंट, रोगरज वाहिर है है। नाके घ्यानाहूत वसो उर अंबुन माही। कोनं जगत उपकार करण समरथ सो नाहीं ॥ १०॥ बन्म जन्मके दुःख सहै सब ते तुम जानो। याद किये मुझ हिये लग आयुधसे मानो। तुम दयालु जगपाल स्वामि मैं शरण गही है। जो कुछ करना होय करो परमाण वही है ॥११॥ मरण समय तुम नाम मंत्र जीवक ते पायो । पापाचारी स्वान प्राण तज अमर कहायो । नो मणि माला लेय पै तुम नाम निरन्तर । इन्द्र संपदा लहै कौन संशय इस अंतर ॥१२॥जो नर निर्भल ज्ञान मान शुचि चारित साफैं। मनबधि मुखकी सार भकि ताली नाह ला) । सो शिव ठिक पुरुष मोक्षपट केम उघारे। मोह मुहर दिदकरी मोक्षनन्दरके द्वारे ॥३॥ शिवपुर को पंथ पापतम सो अति छायो। दुःख स्वरूप बहु कपट खाई सो विकट बतायो ।। स्वामी मुख सो तहां कौन जनमारग लागे । प्रमु प्रवचन मणिदीप जानहें आगें आगे ॥१०॥ कर्म पटक भूमाहं दबी आत्म निधि भारी। देखत अति सुख होय दिनुखनन नाहिं उधारी | तुम सेवक तकाल ताहिं निश्चय कर पारें । श्रुति कुदाल सों खोद बंद मू कठिन विदारे ॥११॥ स्यादवाद गिर उपन मोक्ष सागर लों धाई। तुम चरणांवुज. परम भक्तिगंगा सुखदाई । मोचित निर्मल श्यो न्हौन रुचि पुरव जाँमै | अब वह हों न मलीन कौन जिन संशय याम ॥१६॥ तुम शिवमुलमय प्रकट करत प्रमु चिन्तवन तेरो । मैं भगवान् समान भाव यों पर मेरो ॥ यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपबावै। तुम प्रसाद सकलंक नीव वांछित फल पावै ॥१७॥वचन
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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