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RE] जैनसिंदविसंग्रह। नाला तुम: जिनाचेठाहीसुद्धा सुजान नाक विषयसुखाल्लाह तिहाथाना ॥जो बैठहुं-तोपिंकरिन रहियो नो परोतों
दे जिन गहियो । जोढ़ गहो तो: लटिनः जहयोगजो उलटी तीतानि भनिधियोः॥ ६ ॥ इह विधिासुमा पढायों तित भुवय पदिक भयो विचित्त पृढ़त-हेनिशदिनाय नमः सुनत लहै। सबः प्राती चैन:॥ ७॥ इक-दिनासुपटै आई भने ।
गुरु संगत तन मन गये वनै ॥वनमें लोमानलिनाअतिचिनी । • दुर्भन मोह दगाको, तनी ॥ ८॥तो तरुविषयमोशमनाघरे।
सुवटै जान्यो ये सुख खरे। उतरे विषयसुखनकोकांना नलित विलस रान:॥॥ बैठो लोभ नलिन जगाविषय स्वाद रमालटको तवे ॥ लटकत तर उलटि गये.मावा तर मुंडीऊपर भये पांव ॥ १० ॥ नलिनी दृढ़ - पकरें पुनि रहै। मुख वचनः दीनता कहे ॥ कोउ न तहां छुड़ावनहार। नलनी-पकरहि किरहिं पुकार ॥११॥ पढ़त रहै गुरुके सब बैंन । ने जे हितकर रखिये ऐन ॥ सुवटी वनमें उड़ निज जाहु । जाहु तो भूलचुगा निज खाहु ॥ १२ ॥ नलनीके मिन जड्यो तीर। ना तो वहां न बैठहु वीर ॥ जो बैठो तो दृढ़ जिन गहो । जो दृढ़ ग़होतो परि न रहो ॥ १३ ॥ जो पकरो तो चुगा न खइयो। जो तुमः खावो तो उलट न जइयो । नो उलटो तो तन मन धड्यो । इतनी सीख हृदयमें लहियो" ॥१॥ ऐसे वचन पढ़त पुन रहै। लोमाननि तन .भज्यो न चहै ॥ आयो दुर्जन दुर्गतिरूपः । पकड़े सुवटा सुन्दर भूपं ॥ १५॥ डारे दुखके जाल मंझार । सो दुख कहत न आवै पार || भूख. प्यास बहु संकट सहै । परखस: