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जैन सिद्धांतसंग्रह !
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१६ ॥ सुवटाकी सुधि बुधि-- सत्र गई ।
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परे महां दुख लहै: ॥ यह तो बात और कछु भई | आय: परे दुखसागर मांहिः | अब इततें:- कितको, भज, जाहिं ॥ तो काल गयो. इह ठौर । सुवटै नियमें ठानी और ॥ यह: दुख जाल कटे कि भांति । ऐसी मनमें उपजी खांति ||१८|| रात दिना प्रभु सुमरन करै । पाप जाल काट्न चित. घरे ॥ क्रम क्रम कर काट्यो- अघ जाल | सुमरन फल भयो दनिदयाल ॥ १९ ॥ अब इतर्ते जो भजर्के जाऊं । तो नलनीपर बैठ न खाऊं ॥ पायो दाव भज्यो. ततकाल । तज़ दुर्जन दुर्गति अंजाल ॥ २० ॥ आये उड़त बहुरः वनमाहिं | बैठ नरभव द्रुमकी छाहिं ॥ तित इक साधु महां: मुनिराय | धर्मदेशना देत सुभाय ॥ २१ ॥ यह संसार कर्मवन:रूप । तामहिं चेत सुभ, अनूप ॥ पढ़त रहै गुरु बचन विशाल | तौह न अपनी कर सम्भाल ||२२|| लोभ नलिनपैं बैठे जाय । विषय स्वाद रस लटके आय । पकरहि दुर्जन दुर्गति परै । तामें. दुःख बहुत जिय भरे ॥ २१ ॥ सो दुख कहत न आवे पार । जानत जिनवर ज्ञानमंझार ॥ सुनतै सुवटा चौंक्यो आप । यह तो मोहि परयो सत्र पाप ॥ २४ ॥ ये दुख तौ सब में ही सहे । जो मुनिवरने मुखतें कहे || सुबटा सोचै हिये मंझार । ये गुरु". सांचे तारनहार ॥ २९ ॥ मैं शठ फिरयो करम वनमाहि । ऐसेगुरुं कहुं पाये नाहिं | अब मोहि पुण्य उदै कछु भयो । सांचे गुरुको दर्शन लयो || २६ ॥ गुरु स्तुति कर वारंवार । सुमिरै सुवटा हिये मंझार ॥ सुमरत आप पाप भज गयो । घटके पट . खुल सम्यक् थयो ॥ २७॥ समकित होत लखी सब बात । यह
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