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जैनसिद्धांससंग्रह में [१५७ निमित्त.कारणकी करा ॥ जिनदेव भासा तिनःप्रकाशा भर्मनाशामुन गिरा। सुर मनुष-तिथंच नारकी हुवे ऊर्ध्व मध्य अघोघरा ॥ अनंत कालानिगोद मटका निकस थावर तनधरा । भूवारि तेज क्यारि है..के वेइन्द्रिय त्रस अवतरा। फिर हो तेइन्द्री वा चौइंद्री पंचेंद्री.. मनबिन बना । मन युतमनुषगतिहोना दुर्लभ ज्ञान अति दुर्लम चना॥११॥ न्हाना-धोना तीर्थ जाना धर्म नाही जप जपा | नमः रहना धर्म नाही धर्म नाहीं तप तपा ॥ वर धर्म निन आत्मः स्वमाव ताहि विन सब निष्फला । बुधजन घरमं निज धार लीना ।' तिनहि कीना सब भला ॥१२॥ :... अथिराशरणसंसार है, एकत्वअनित्यहि जान । अशुचि आश्व संवरा, निर्भर लोक बखान ॥१३॥ बोध औ दुर्लभ धर्म: थे, बारह भावन नान । इनको भावे जो सदा क्यों न लहै निर्वाण ॥ १.१.॥. :
.. (२२) सुकावतीसी । . ।
.. दोहा-नमस्कार जिन देवको, करों दुई करनोर । सुवा. बतीसी :सुरस मैं, कहुं अरिनदल मोर ॥१॥ आतम सुआ सुगुरु वचन, पढ़त रहे दिन रैन । करत काज अघरीतिके, यह अचरज लखि नैन ॥२॥ सुगुरु पढ़ावे प्रेमसो, यह पढ़त मनलाय । घटके पट जो ना खुलै, सब ही अकारथ नाय ॥ ३ ॥
चौपाई-सुवा पढ़ाया सुगुरु बनाय । करम वनहि मिन जइयो भाय । भूले चूके कबहु न नाहु । लोम नलिनि में चुगा न ख़ाहु ॥४॥ दुर्जन मोह दगाके कान | बांधी नलनी तल पर