________________
१२४
जैन सिद्धांतसंग्रह। विपतिमें अतिसनरहे । दुःख मानसी तो देवगंतिमें नारकी दुःख" ही भरे । तियच मनुज वियोग रोगी शोक संकटमें जरे ॥ ३ ॥ क्यों भूलता शठ फूलता है देख पर कर थोकको । लाया कहाँ लेनायगा क्या फान भूषण रोकको ।। जामन मरण तुझ एकले । को काल केता होगया । संग ओर नाही लगे तेरे सीख मेंरी. सुन मया ॥४॥ इन्द्रीनसे जाना न जाने चिदानन्द अलक्ष है। ख सम्वेदन करत अनुभव होत तब प्रत्यक्ष है । तन अन्य भड़ . नानो सरूपी तू अरूपी सत्य है । कर भेद ज्ञान सो ध्यान घर निन और वात असत्य है ॥३॥ क्या देख राचा फिरे नाचारूपः सुन्दर तन लिया। मल मूत्र भाड़ा भरा गाढ़ातून जाने भ्रम गया। क्यों सूग नाही लेत आतुर क्यों न चातुरता घरे। तोहि काल. गटके नाहिं अटके छोड़ तुझको गिरपरे ॥६॥ कोई खरा कोई बुरा नाही वस्तु विविध स्वभाव है। तू वृथा विकलप ठान टरमें करत राग उपाव है। यों भाव आश्रव बनत तू ही द्रव्य आश्रव सुन कथा । तुझ हेतुसे पुद्गल करम वन निमित हो देत व्यथा ॥ तन भोग जगत् सरूप बख डर भविक गुर शरणा लिया। सुन धर्म धारो भर्म गारा हर्षि रुचि सन्मुख भया। इंद्री अनिन्द्री दावि लीनी त्रसे रु थावर व तना। तब कर्म आश्रव द्वार रोके ध्यान निमें से सजा तन शल्य तीनों वरत लीनो वाह्या. भ्यन्तर तप तपा। उपसर्ग सुर नर जड़ पशु त सहा निन आत्म जपा | तब-कर्म रस विन होन लागे द्रव्य भावन निर्जरा। सब कर्म हरके मोक्ष वरके रहत चेतन उजरा ॥९॥ विच लोक नंतालोक माहीमें द्रव सब है भरा । सब भिन्न- २ अनादि रचना