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जैनसिद्धांतसंग्रहः। सोरठा मोहनींद लोर, जगवासी धर्मे सदाः कमलोर चहुंओर, सरबस सुध नहीं७॥ सतगुरु देय जगीय, सोहनींद जब उपशमें । तब कुछ बने उपाय, कर्म चोर आवतारुमारा.
.. दोहा ज्ञान दीप:तपा तेल:भिरघर सोधे ममाछोर । याविधि विना निकसें नहीं, पेठे पूरव चोर || ९ ||पंचमहावत, संचरण, समिति पंचापरकार प्रिवलं पंचाइन्द्री विजय धार निरी सार ॥१६॥ चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें भीव अनादिते; भरमत है।विन ज्ञानराजाचे सुरतरु चिंतत चिंतारेंना विनःनांचे बिन चिंतये, धर्म सकलसुख दैन' ।। १. धनकन कंचना राजसुख, सबंहि सुलभकर जा संसार एक यथारथ ज्ञानः ॥ १३ ॥ ....: बारहमाना।
बुधजनदास कृत) ती जगतमें वस्तु तेती अथिर पर्ययते सदा। परणमनराखनः कोन समरथ इन्द्र.चक्री मुनि कदा ॥ धन यौवन सुत नारी पर कर जान दामिन-दमकसा । ममता न कीजे धारि समता मानि जलमें नमकसा ||--१. 1 चेतन अचेतन सब परिग्रह हुआ अपनी थिति हें । सो रहें आम करार माफिक अधिक राखे न रहें। अब शरण काकी लेयगा जब. इन्द्र नाहीं रहत हैं। शरण तो इक धर्म आतम जाहि मुनिजन गहत हैं ॥ १ सुरनर नरक पशु सकल हेरे कर्म चेरे बन रहे । सुख शाश्वता नहीं . भासता सक