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१२४] जनासदांतसंग्रह .. .. ... नहिं निर्न कोय, भूप बंदीखाने ।। तुम सुमरत खयमेव हो, बंधन संच खुल जाहि छिनमें ते सम्पति लहैं. 'चिन्ता भय विनसाहि ।। महामत्तं गनरान, और नृगराज दवानले । फणपति रण पंरचंड नीरनिधि रोग नहावलं ॥ बन्धन ये भय आठ. डरपकर मानों नाशै । तुम सुमरतं हिनमाहि, अभय थानक परकाश ।। इस अपारं संसारमें, शरन नाहि प्रभु कोय । यति तुम पदभक्तकों, मकि सहाई हो ॥ यह गुनमाल विशालं, नायें तुमं गुनन संबारी। विविध वर्णनय पुहुपं गूथ में भक्ति विद्यारी ।। में नर पहिरे कंठ भावना ननमें भावें । मानतुंगते निजाधीनं, शिवलछमी पाव | भाषा भतामर कियो, 'हेमराज हिनहेत । बनर पढ़ें मुमावसों, ते पा शिवसत ॥
(२०) बारह माना।
(मूघरदास कृत) दाहाना राणा छत्रपति हार्थिनके असंवार । मरनों सबने एक दिन. अपनी अपनी वार ॥॥ दल बलं देई देवता मात पिता-परिवार। मरती विरिया जीवको कोई न राखनहार गरि दोम विना निर्यन दुखी, तृष्णांश धनवान् । कहूं न मुर्ख संसारमें, सब जग देयो जानं ॥ ३ ॥ आप अकेला अवतर मेरे भकेला होय।यों कवई इस नविको, साथी सगा न कोय । नहां देह अपनी नहीं, वहां नं अपना कोय। घर संपति पर' प्रगट ये; पर हैं परिजन लोय ॥५॥ दिपै चाम चादर मंदी, हाई पीना देह मानर यार्सन जगत, और नहीं बिननेह ॥६॥