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जैनसिद्धांतसंग्रह ।
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श्रीगुरु उरु समभाव घारके, अपनो रूप सम्हालो ॥ - यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव वारी ॥ ४६ ॥ सात शतक मुनिवरने पायो, हथनापुरमें जानो । बलिब्राह्मणकृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहिं मानो || यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित घारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव वारी ॥ १७ ॥ लोहमयी आभूषण गड़के, तातेकर पहराये ।
पांचों पाण्डव मुनिकेतनमें तौ भी नाहिं चिगाये ||
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यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित घारी ।
तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव वारी ॥ ४८ ॥ और अनेक भये इस जगमें, समता रसके स्वादी । वे ही हमको हो सुखदाता, हरहें टेव प्रमादी || सम्यकदर्शन ज्ञान चरण तप ये, आराधन चारों । ये ही मोकों सुखकी दाता, इन्हें सदा उर धारों ॥ ४९ ॥ यो समाधि उरमांही लावो, अपनो हित जो चाहो । तज ममता अरु आठों मदको जोतिस्वरूपी ध्यावो ॥ जो कोई निज करत पयानो, ग्रामांतर के काजे ।
सो भी शकुन विचारे नीके, शुभ शुभ कारण साने ॥ ५० ॥ मात पितादिक सर्व कुटुमसो, नीके शकुन बनावें ।
हलदी धनिया पुंगी अक्षत, दूध दही फल लावें ॥ एक ग्रामके कारण एते, करै शुभाशुभ सारे ।
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जब परगतिको करत पयानो, तब नहिं सोचे प्यारे ॥ ११ ॥