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जैन सिद्धान्त दीपिका
और मन के योग्य पुदगलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने वाली पोद्गलिक शक्तियों के निर्माण को क्रमश: शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, उच्छ्वास-निःश्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति कहते हैं । इन छहों का निर्माण जन्म के समय एक साथ ही शुरू होता है और पूर्ण होने में आहारपर्याप्ति को एक समय तथा शेष सबको क्रमशः एक-एक अन्तर्मुहर्त लगता है। जिस जन्म में जिसे जितनी पर्याप्तियां करनी होती हैं, वह जीव उनको समाप्त न करने तक अपर्याप्त और समाप्त करने पर पर्याप्त कहलाता है।
१२. पर्याप्ति की अपेक्षा रखने वाली जीवनशक्ति को प्राण कहते हैं।
१३ प्राण दस हैं :
१. स्पर्शन-इन्द्रिय-प्राण। ६. मनो-बल । २. रसन-इन्द्रिय-प्राण। ७. वचन-बल । ३. घाण-इन्द्रिय-प्राण। ८. काय-बल ४. चक्षु-इन्द्रिय-प्राण । ६. उच्छवास-नि:श्वास-प्राण। ५. श्रोत्र-इन्द्रिय-प्राण। १०. आयुष्य-प्राण।
१४. जन्म तीन प्रकार के होते हैं-गर्भ, उपपात और संमूर्छन । ' जन्म, उत्पत्ति और भव ये तीनों एकार्थवाची शब्द हैं।