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जैन सिद्धान्त दीपिका
उन्हें अमनस्क या असंशी कहते हैं ।
७. नारक, देवता, गर्भोत्पन्न तियंञ्च और गर्भोत्पन्न मनुष्य, ये सब
समनस्क होते हैं।
८. इनके अतिरिक्त समूच्छिम तिर्यञ्च और समूच्छिम मनुष्य
अमनस्क होने हैं।
६. जीव के पर्याप्त, अपर्याप्त आदि अनेक भेद होते हैं।
जीव दो प्रकार के होते हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इसी प्रकार सूक्ष्म-बादर, सम्यकदृष्टि-मिथ्यादृष्टि, संयत-अमंयत, प्रमत्त-अप्रमत्त, सगग-वीतराग, छप्रस्थ-केवली, सयोगीअयोगी, तीन वेद, चारगति, पांच जानि, छह काय, चौदह जीवस्थान, जीव के चौदह भेद, चौबीम दण्डक आदि जीव-तत्व के अनेक भेद होते हैं।
१०. जन्म के प्रारम्भ में जो पौद्गलिक शक्ति का निर्माण होता है,
उसे पर्याप्ति कहते हैं।
११. पर्याप्तियां छह हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रिय
पर्याप्ति, उच्छ्वास-निःश्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति ।
आहार के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने वाले पौद्गलिक शक्ति के निर्माण को आहार पर्याप्ति कहते हैं । इसी प्रकार शरीर, इन्द्रिय, उच्छवास-नि:श्वास, भाषा